हिंदुओं में राजनैतिक चेतना कैसे आये- एक सुझाव
दिनाँक ४/६/२०११ को योग गुरु स्वामी रामदेव अपने लाखों समर्थकों के साथ दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे थे| उनकी मुख्य मांग थी की सरकार भारतियों द्वारा विदेशी बैंको में जमा काले धन को राष्ट्रीय सम्पति घोषित करे और उसे हिन्दुस्तान वापिस लाए और भ्रष्टाचार के विरुद्ध सख्त एवं कठोर कानून बनाए| स्वामी जी की मांगो के समर्थन में लाखों महिलाएं एवं बच्चे भी अनशन कर रहे थे| स्वामी जी कालेधन की भारत वापसी की मांग काफी समय से करते रहे है पर जब सरकार द्वारा इस विषय पर कोई संतोषजनक कार्यवाही नहीं की गई तो विवश होकर उन्हे अपने समर्थकों के साथ अनशन करने का निर्णय करना पड़ा |
उस रात लगभग १२ बजे दिल्ली व केन्द्र की कांग्रेस सरकार के इशारे पर लगभग ५००० पुलिसकर्मीयों ने वहां आकर निहत्थे औरतों और बच्चों पर आँसू गैस के गोले छोड़े और निर्दयता पूर्वक लाठीचार्ज किया जिसमें हरियाणा की एक महिला “राजबाला” की दर्दनाक मौत के साथ सैकड़ों लोग बुरी तरह घायल हुये| पंडाल को खाली कराने के बाद पुलिस जबरन स्वामी जी को पकड़ कर उनके आश्रम हरिद्वार छोड आई|
जनता में सरकार के इस बर्बरता पूर्ण कार्यवाही के प्रति रोष है| सुप्रीम कोर्ट ने इस कांड का स्वत: संज्ञान लेते हुए सरकार व पुलिस अधिकारियों से जबाब माँगा है| पुलिस अधिकारियों ने अपने बचाव में अपनी इस कार्यवाही के कई कारण बताये है| मामला सुप्रीम कोर्ट में है, वह देखेगी की क्या पुलिस के पास ऐसी कार्यवाही का कोई उचित कारण था या नहीं?
जनता के मन में इस बर्बरता पूर्ण पुलिस कार्यवाही पर इसलिए और भी रोष है क्योंकि इससे कुछ दिन पहले इसी रामलीला मैदान के नजदीक ही कश्मीरी अलगाववादी नेता सैय्यद अलीशाह जिलानी ने एक सभा का आयोजन किया था| उसमें कई नेताओं ने कश्मीर में कार्यरत भारतीय सेना की निंदा की थी | इतना ही नहीं कश्मीर को भारत का अंग न मानते हुये इसे एक विवादित प्रदेश तक कहा| दूसरे शब्दों में उन्होने भारत की संप्रभुता- अखंडता और भारतीय संविधान तक को चुनौती दी, पर उन देश द्रोही लोगों के विरुद्ध अभी तक कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की गई| जनता पूछ रही है कि दोनों सम्मेलनों के प्रति भारत सरकार व पुलिस का ऐसा भिन्न एवं भेदभाव पूर्ण नजरिया व व्यवहार क्यों है?
वस्तुतः भारत के नागरिकों के प्रति सरकार के भेदभाव पूर्ण व्यवहार का यह अकेला उदाहरण नहीं है| भारत में ही “पर्सनल सिविल ला” (personal civil law) हिंदुओं के लिए अलग और मुस्लिमों के लिए अलग क्यों लागू किया गया है? ऐसा भिन्न भेद मात्र मेजोरिटी एवं मायनोरटी शिक्षा संस्थानों के प्रति भी है| भारत के नागरिकों खासकर हिंदू एवं मुसलमानों के प्रति एक लोकतन्त्र में सेकुलर कहलाने वाली सरकार द्वारा ऐसा भेदभाव पूर्ण व्यवहार न सिर्फ अशोभनीय है बल्कि निन्दनीय भी है|
सरकार द्वारा ऐसा भेदभाव पूर्ण व्यवहार ही हिंदू एवं मुस्लिम समाज के बीच कड़वाहट का कारण बना हुआ है | सम्भवतः स्वतंत्र भारत की सरकार भी अंग्रेजी सरकार की तरह फूट डालो और राज करो की नीति को लागू किये रहने में ही अपना हित समझती है| कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो केस में मुस्लिम पर्सनल ला पर टिप्पणी करते हुए “कामन सिविल ला कोड” (common civil law code) बनाने की सरकार को राय दी थी| परन्तु सरकार ने कुछ मुस्लिम नेताओं और कट्टरवादी मुल्लाओं के विरोध को देखते हुए संविधान में ही ऐसा परिवर्तन कर दिया जिससे सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट स्वयं ही निष्प्रभावी(nulify) कर दिया गया|
इसके विपरीत कुछ समय पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बैंच ने अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि मामले पर फैसला दिया था कि विवादित स्थान ही राम जन्म स्थान/ राम जन्मभूमि है| इसके बाद कई हिंदू संस्थाओं ने मांग रखी कि इस फैसले को देखते हुये भारत सरकार को ऐसा कानून बनाना चाहिये जिससे राम मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त हो और जिससे हिंदू मुस्लिमों में बना हुआ विवाद हमेशा के लिए समाप्त हो जाए| पर संभवतः भारत की कांग्रेसी सरकार ने अपनी फूट डालो और राज करो और मुस्लिम तुष्टिकरण की राष्ट्रघाती नीति के अनुसार हिंदुओं की मांग को अनसुना कर दिया|
साफ़ है की सरकार मुस्लिम नेताओं को खुश करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी(nullify) कर देती है और हिंदुओं की मांग पर हाई कोर्ट के फैसले के बाद भी ऐसा कानून बनाने को तैयार नहीं जिससे राम जन्म भूमि (जिसे हाई कोर्ट के तीनों जजों की बैंच ने राम जन्म स्थान स्वीकार किया है) पर भव्य राम मंदिर का निर्माण हो सके|
आखिर क्यों मुस्लिम नेताओं की हर बात मानी जाती है और हिंदू नेतओं की नहीं? वजह साफ है मुस्लिम समाज में राजनैतिक जागरूकता और एकता है जबकि हिंदू समाज में इन दोनों तत्वों का अभाव है|
ऐसे में विचारणीय विषय यह है कि क्यों मुस्लिम समाज में राजनैतिक जागरूकता और एकता है और क्यों हिंदुओं में इसका अभाव है? यह विषय शोध- अनुसंधान का हो सकता है| हर विचारवान व्यक्ति व मनोविज्ञान के विधार्थी की इस विषय में अलग अलग राय हो सकती है| इस विषय पर मेरी भी अपनी सोच है, जो मैने अपने अनुभवों के आधार पर बनाई है, उसे हिंदू हित चिंतकों की जानकारी एवं प्रतिक्रिया के लिए नीचे लिख रहा हूं|
अगर हिंदुओं में आज राजनैतिक जागृति एवं एकता का अभाव है तो मेरे विचार में इसके लिए काफ़ी हद तक हमारे आज के धर्म गुरु एवं धर्माचार्य ही उत्तरदायी है| हमारे अधिकांश धर्मगुरु प्रायः राजनीति और देश की मौजूदा परिस्थितियों से अनभिज्ञ तो हैं ही खेद का विषय है की वे इससे अनभिज्ञ ही बने भी रहना चाहते है| उनमें महर्षि वशिष्ठ, महर्षि व्यास या महात्मा विदुर जैसी सोच का नितांत अभाव है| यह लोग धर्माचार्य होते हुए भी राजनीति से विरक्त नहीं थे बल्कि उसे सही मार्गदर्शन देते थे जबकि आज के धर्माचार्य, हिंदू जनता को यह सिखाते है कि “ राजनीति तो वेश्या समान है इससे दूर रहो”, “संसार से विरक्त रहो”, “निर्लिप्त रहो”, “न घर तेरा न घर मेरा चिडिया रैन बसेरा”,“मोक्ष की सोचो, संसार मिथ्या है”| “हिंदू और
हिन्दुस्तान की बात करना तुच्छ सोच है” “सम्पूर्ण मानव या विश्व कल्याण की बात करो” (भले ही ऐसी स्थिति में हिंदू और हिंदुस्तान लुटता रहे )| यह धर्मगुरु/धर्माचार्य धार्मिक संकीर्तन एवं भंडारे कराने तक ही सीमित रहते है|
एक धर्म गुरु से जब प्रश्न किया गया की विश्व में ७६ ईसाइयों के देश है, ५३ मुसलमानों के देश है, क्या हिंदुओं का कोई देश है? फिर देश विभाजन के समय हिंदुओं की जनसंख्या ८८% थी जो अब ८३% रह गई है| एक समय हिन्दुस्तान की सीमा हिंदूकुश थी फिर दर्रा खैबर रही और अब बाघा – अटारी हैं |इसका अर्थ ये कि हिंदू और हिन्दुस्तान दोनों छोटे होते जा रहे है तो क्या इसे खतरे की घंटी न माना जाये? तो उनका जबाब था हिंदू अमर है, इसे कोई नहीं मिटा सकता, जब भी धर्म पर संकट आता है ईश्वर स्वयं अवतार लेते हैं इसलिए इन बातों की चिंता मत करो केवल मोक्ष की बात करो यही कल्याण का मार्ग है| अधिकांश धर्मगुरु एवं धर्माचार्य देश, राष्ट्र और अपने समाज के प्रति इतने उदासीन है की उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं है की अगर हिंदू मिट गया या कमजोर होता गया तो कौन उन्हें शंकराचार्य या महामंडलेश्वर कहेगा और कौन उनके चरण स्पर्श करेगा| यह धर्मगुरु-चाणक्य, समर्थ गुरु रामदास व गुरु गोविन्द सिंह के महान कार्यों को भूल जाते है और उनका अनुसरण नहीं करते| यह धर्माचार्य केवल अपने को परम विद्वान, ज्ञानी और परोपकारी मानते हैं इसलिए किसी दूसरे की बात पर यह तवज्जो भी नहीं देते|हमें(खासकर ऐसे धर्मगुरूओं और धर्माचार्यों को) इस सत्य को समझना, समझाना और अंगीकार करना होगा कि कोई भी समाज राजनीति से दूर रहकर सुरक्षित नहीं रह सकता| इसीलिए तो वीर सावरकर ने राजनीती के हिन्दुकरण पर जोर दिया था और कहा था कि कोई भी समाज राजनैतिक वर्चस्व के बिना सुरक्षित नहीं रह सकता या यूँ कहे कि लंबे समय तक जीवित भी नहीं रह सकता|
अब भी हमारे समाज में इन धर्मगुरुओं की अच्छी पैठ है| देश में विभिन्न मठों के साथ जुड़े हुये इनकी संख्या लगभग २० लाख से अधिक ही है, अगर इनमें राजनैतिक जागरूकता आ जाये तो निश्चय ही ये लोग समाज में क्रांतिकारी सुधार ला सकते हैं |
अब जब कुछ धर्मगुरुओं को भी परेशान किया जा रहा है या उनके मठों की संपत्ति पर शिकंजा कसा जा रहा है जैसे जयेन्द्र सरस्वती जी महाराज ,स्वामी रामदेव जी, आशाराम बापू इत्यादि |ऐसे में संत समाज एवं धर्मगुरुओं को राजनीति का महत्त्व समझ में आ जाना चाहिए इसलिए अपने व हिंदू समाज के अस्तित्व की रक्षा के लिए उन्हें हिंदू राजनैतिक दल के साथ जुड़ कर स्पष्ट रूप से मैदान में आना ही होगा अन्यथा वे हिंदू समाज के साथ साथ स्वयं भी नष्ट हो जायेंगे|
आज भी कुछ हिंदू संस्थायें ऐसी हैं जो अपने – अपने तरीके से हिंदू जागरण के लिए कार्य कर रही हैं | इस उद्देश्य से वे छोटी-छोटी पुस्तकें व पर्चे भी छपवा कर वितरित करती हैं जैसे “जागो ! हिंदू जागो” – “हिंदू जागेगा देश का संकट भागेगा” इत्यादि | इन संस्थओं के प्रयास सराहनीय हैं| पर क्या अभी तक हिंदू जागा है और संगठित हुआ है और क्या उसमें राजनैतिक चेतना आई है? मेरे विचार से नहीं| उनके लेख पढ़ने में अच्छे लगते हैं | पढ़ने वाला व्यक्ति प्रायः सराहना भी करता है, कहता है ! वाह बहुत ठीक लिखा है पर इतने मात्र से वह किसी हिंदू राजनैतिक संगठन से जुड़ नहीं पाता| तो बात वहीं रह जाती है जैसे – “व्ही मेट, व्ही डिस्कस्ड, व्ही डिस्पर्सड” | इसका कारण भी मैं यही समझता हूं कि वे हिंदुओं को किसी विशेष हिंदू राजनैतिक दल से जुड़ने का आह्वान नहीं करते| वह किसी हिंदू राजनैतिक दल का नाम लेने से परहेज करते है जिससे आम हिंदू भ्रम कि स्थिति में रह जाता है और एक ध्वज के नीचे जमा नहीं हो पाते| संभवतः इसीलिए यह संस्थायें भी अपने उद्देश्य में ज्यादा सफल नहीं हो रही |
मैं कोई मनोवैज्ञानिक विश्लेषक नहीं हूं पर अपने अनुभव के आधार पर उनसे कहूँगा कि वे अपने प्रचार के तरीके में परिवर्तन लाए तो संभव है कि वे अपने उदेश्य में सफल होंगे|
ऐसे कई अन्य सज्जन है जो हिंदुओं के साथ हो रहे सरकारी अन्याय से परिचित भी है और अपने अपने तरीके से हिंदुओं की समस्याओं और उनकी बात को मीडिया में उठाते भी रहते है पर उनमें भी अधिकतर में राजनैतिक स्पष्टता का अभाव रहता है| वे हिंदू- हिंदू की बात तो करते है पर किसी हिंदू राजनैतिक पार्टी से जुड़ने से परहेज करते हैं और गर्व से कहते हैं कि वह किसी राजनैतिक दल से बंधे हुए नहीं हैं| इसलिए वह भी अन्य हिंदुओं को स्पष्ट मार्गदर्शन नहीं दे पाते| अतः उनके हिंदू जागरण एवं एकता के प्रयत्न ज्यादा सफल नहीं हो पाते| ऐसे लोगों के लिए मैं अपने अनुभवों के आधार पर एक वृतांत बताना चाहता हूं जिसका उद्देशय यह बताना है की क्यों मुस्लिम राजनीतिक रूप से अधिक जागरूक है और हिंदू नहीं|
भारत विभाजन से थोड़ा पहले मैंनें आयकर विभाग में नौकरी शुरू की और मेरी पहली पोस्टिंग रावलपिंडी में हुई जो अब पकिस्तान में है, मेरे मकान के पास एक सार्वजनिक वाचनालय था| दफ़्तर से छुट्टी के बाद मेरा ज्यादातर समय उस वाचनालय में अखबार आदि पढ़ने में निकलता था| पंजाब में उन दिनों उर्दू भाषा का बोलबाला था| मेरी भी पहली भाषा उर्दू थी| उस वाचनालय में एक अंग्रेजी की अखबार ट्रिब्यून एवं चार उर्दू के दैनिक पत्र आते थे| दैनिक पत्रों में ‘प्रताप एवं मिलाप’ दो पत्र जिसके मालिक हिंदू थे और दो उर्दू के दैनिक पत्र ‘नवाये वक्त एवं ज़मीदार’ आते थे| इन दोनों पत्रों के मालिक मुसलमान थे|
उन दिनों तीन मुख्य राजनैतिक दल थे| एक मुस्लिम लीग जो मुसलमानों के लिए अलग देश पकिस्तान की मांग कर रही थी| उसका कहना था की हिंदू एवं मुसलमानों में कुछ भी समानता नहीं है| दोनों का इतिहास ही अलग अलग नहीं है वरन दोनों के राष्ट्रपुरुष और सर्वोच्च श्रद्धा के केन्द्र भी अलग-अलग हैं| अतः दोनों कभी भी परस्पर शांतिपूर्वक नहीं रह सकते और कि मुसलमान एक अलग राष्ट्र है, इसलिए उनके लिए पृथक देश पाकिस्तान चाहिए| मुस्लिम लीग ने स्वतंत्रता आन्दोलन में कुछ भी सहयोग नहीं दिया उल्टे अवरोध ही लगाये थे और अंग्रेज सरकार से कहा था की वे भारत को तब तक छोड कर ना जायें जब तक भारत का विभाजन कर मुसलमानों के लिए एक अलग देश पकिस्तान ना बना दिया जाये| इस मुस्लिम लीग की नुमाइंदगी मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत अली खां कर रहे थे|
दूसरी पार्टी कांग्रेस थी जिसके नेता गाँधी जी एवं जवाहरलाल नेहरु थे| यह उस समय की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी थी| वह अहिंसात्मक तरीके से अंग्रेजों से स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे| अगस्त १९४२ में कांग्रेस ने “अंग्रेजों भारत छोडो” का आन्दोलन चलाया था जो असफल रहा | उसके बाद गांधीजी नें निराशा व कुंठा में यह निष्कर्ष निकाला कि मुसलमानों और मुस्लिम लीग के सहयोग के बिना उनका आन्दोलन सफल नहीं हो सकता| इसलिए गांधीजी ने मुस्लिम लीग एवं उसके अध्यक्ष मोहम्मद अली जिन्ना की खुशामद करनी शुरू करदी और वे मोहम्मद अली जिन्ना के मुंबई स्थित घर के चक्कर लगाने लगे| गाँधी जी ने यहाँ तक कह दिया कि “अगर अंग्रेज भारत छोड़ते समय सम्पूर्ण भारत की सत्ता मुस्लिम लीग के हाथों में दे कर जाते है तो उंन्हें उस पर भी कोई आपत्ति नहीं होगी और ऐसी स्थिति में वे मुस्लिम लीग की सरकार को अपना सहयोग भी देंगे|”
तीसरा राजनैतिक दल था हिंदू महासभा| यह दल हिंदू हितों की बात करता था इनके नेता थे प्रसिद्ध क्रांतिकारी वीर विनायक दामोदर सावरकर एवं भाई परमानन्द जो भारत की स्वतंत्रता हेतु क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण अंग्रेज सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के आरोप में कालेपानी- अंडमान की लंबी यातना पूर्ण जेल काट कर आये थे| हिंदू महासभा हिंदू हितों की रक्षा की मांग करती थी एवं मुस्लिम लीग की पकिस्तान की मांग का विरोध करती थी| वे गाँधी जी द्वारा मुस्लिम लीग के अध्यक्ष को लिखे उस पत्र की भी विरोधी थी जिस पत्र में गांधीजी ने लिखा था की अगर अंग्रेज सरकार भारत छोड़ते समय भारत की सत्ता मुस्लिम लीग को दे कर जाती है तो इस पर उंन्हें(गांधीजी) व कांग्रेस को कोई आपत्ति नहीं होगी|
यह पार्टी अपने ढंग से स्वतन्त्रता आन्दोलन चला रही थी और उसका कहना था की “अगर मुसलमान साथ देते है तो उनको साथ लेकर, साथ नहीं देते है तो उनके बगैर, और अगर विरोध करते है तो उस विरोध को दरकिनार कर स्वतंत्रता आन्दोलन चलेगा और देश स्वतंत्र कराया जायेगा|”
ऐसी स्थिति में १९४६ में अंग्रेज सरकार ने भारत के सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली के चुनाव घोषित कर दिए| उस समय हिंदू एवं मुसलमानों के लिए अलग- अलग सीटें होती थीं| (जिसे कांगेस ने गांधीजी के मार्गदर्शन में उनके शिष्य भूला भाई देसाई ने कम्यूनल अवार्ड के रूप में अंग्रेज सरकार से समझौता कर स्वीकार किया था) यह कम्युनल अवार्ड, मुस्लिमों में अलगाववादी मनोवृति बढ़ाने वाला प्रावधान ही सिद्ध हुआ जो गांधीजी की अदूरदर्शिता ही प्रदर्शित करता है|
इन चुनावों में कांग्रेस ने लगभग सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किये, मुस्लिम लीग ने सभी मुस्लिम सीटों पर और हिंदू महासभा ने कुछ हिंदू सीटों पर अपने प्रत्त्याशी खड़े किये| हिन्दुमहासभा के टिकट पर चुनाव लड़ने वालों में आर. एस. एस. के कुछ नेताओं ने भी नामांकन भरे थे पर आर. एस. एस. नेतृत्व के यह कहने पर कि वे राजनीति से दूर रहें, आर. एस. एस. ने उन सभी उम्मीदवारों के नाम वापस करा दिए| जिस कारण हिंदू महासभा को इस चुनाव में काफ़ी बड़ा झटका लगा और उनके कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास ही नहीं टूटा वरन उनमें घोर निराशा भी छा गई|
उन दिनों अखबारों में इन सब राजनैतिक गतिविधियों की खूब चर्चा होती थी, राजनैतिक माहौल गर्म था| जनता में बैचनी व्याप्त थी| ऐसी स्थिति में भी हिंदू अखबार(प्रताप एवं मिलाप) अपने आप को मानवतावादी दिखाने के चक्कर में हिंदू जनता से अपील करते थे की उंन्हें अपना वोट पढ़े लिखे एवं ईमानदार व्यक्ति को देना चाहिए| इसके विपरीत मुस्लिम अखबार अपने मूल उद्देश्य के प्रति पूरी तरह स्पष्ट होने के कारण अपने समाचार पत्रों नवाये वक्त और ज़मीदार अखबारों में रोजाना कुछ इस तरह के लेख लिखते थे जैसे “ मुसलमानों, इस्लाम का परचम बुलंद रखने के लिए, मुसलमानों की बेह्बुदी के लिए और पकिस्तान की तामीर के लिए आपको अपना वोट सिर्फ मुस्लिम लीग को ही देना चाहिए”(वह हिंदुओं की तरह नैतिकता का मुखौटा ओढने की बजाय अपने लोगों को स्पष्ट सन्देश देते थे)|
चुनाव के नतीजे भी कुछ ऐसे ही रहे| उत्तर-पश्चिम सीमाप्रांत को छोड कर सभी मुस्लिम सीटों पर मुस्लिम लीग जीती उसे लगभग ९३% मुस्लिम वोट मिले| हिंदू सीटों पर कांग्रेस जीती उसे लगभग ८४% हिन्दुओं के वोट मिले| हिंदू महासभा को इस चुनौती पूर्ण समय में आर. एस. एस. के असहयोग, अदूरदर्शी एवं भ्रम उत्पन्न करने वाली स्थिति के कारण लगभग १६% हिंदू वोट ही मिले| इस चुनाव में आर. एस. एस. का भी अप्रत्यक्ष समर्थन कांग्रेस को मिला| इन्हीं चुनाव के नतीजों के कारण ही पकिस्तान का निर्माण हुआ|
तभी से मेरी यह पक्की धारणा बनी कि क्योंकि मुस्लिम धर्म- गुरु, मुल्ला, मौलवी, मुस्लिम लेखक एवं उनके समाचार पत्र खुलकर इस्लाम एवं अपनी राजनैतिक पार्टी(मुस्लिम लीग) का नाम ले लेकर जनता से उसे समर्थन देने कि बात करते है जबकि हिंदू लेखक, हिंदू धर्माचार्य , हिंदू नेता , हिंदू अखबार , अव्वल तो हिंदुओं को राजनीति से दूर रहने कि सलाह देने के साथ मोक्ष और आत्म कल्याण एवं विश्व कल्याण के पलायन वादी प्रवचन सुनाते है| कुछ नेता हिंदू-हिंदू की बात करते हैं पर वे भी किसी विशेष हिंदू राजनैतिक पार्टी का नाम नहीं लेते और न ही किसी पार्टी से जुड़ने की बात करते हैं| वे हिंदू हितों कि बातें करेंगे, हिन्दुओ पर हो रहे अत्याचार व अन्याय का रोना भी रोएंगे पर हिंदू राजनैतिक पार्टी का नाम लेने से उन्हें परहेज होता है| वे तटस्थ रहने व अपने को असम्बद्ध रखने का दिखावा करने का प्रयास करते है| यही कारण है हिंदुओं के राजनैतिक पिछड़ेपन का और भ्रमित बने रहने का | इसी कारण हिंदुओं में एकता , संगठनात्मक ढ़ाचे का एवं राजनैतिक चेतना का अभाव है | आखिर हम क्यों किसी संवैधानिक हिंदू राजनैतिक दल का सदस्य या कार्यकर्त्ता कहलाने में संकोच या शर्म महसूस करें ? अगर हम किसी हिंदू संवैधानिक राजनैतिक दल से जुडेंगे, उसे शक्तिशाली बनायेंगे तभी तो वह हिंदुओं के साथ हो रही ज्यादतियों से छुटकारा दिलवा सकेगी |
मेरा मानना है कि जब तक देश का कम से कम २०% हिंदू वोट बैंक के रूप में एकजुट नहीं होगा अर्थात उसका वोट एकजुट होकर मात्र हिंदू, हिंदुत्व और हिन्दुस्थान के लिए नहीं पड़ेगा और वह जातिवाद, भाषावाद या प्रान्तीयता के नज़रिए से ऊपर उठ कर हिंदू एवं राष्ट्रीय हित के विचार से अपना वोट नहीं डालेगा तब तक उसकी चिंता कोई नहीं करेगा| उसके हित में कोई कानून नहीं बनेगा और उसका शोषण अथवा त्रिरस्कार होता रहेगा| बार-बार यह कहते रहना कि अधिकांश राजनैतिक पार्टियां वोट बैंक की खातिर मुस्लिम तुष्टिकरण कर रही हैं से कोई हल निकलने वाला नहीं है इसके लिए स्वंय भी एकजुट हो हिंदू वोट बैंक बनना ही इस समस्या का एकमात्र हल हो सकता है|
हिंदू नेतओं एवं धर्माचार्यों को इस रहस्य को समझना होगा तभी हिंदू का राजनैतिक पक्ष बलबती होगा और तब कोई भी सरकार हिन्दुओ की उचित मांगों को ठुकरा नहीं पायेगी| आशा करता हूं हिंदू हितचिन्तक मेरे इस विश्लेषण पूर्ण विवरण पर गंभीरता से विचार करेंगे और हिंदू जनता को सामाजिक, राजनैतिक एव बौद्धिक स्तर से जागरूक करते हुए पूर्ण रूप से राष्ट्रवादी बनाने में सहायक होंगे| जब हिंदू संगठित होगा, उसमें राजनैतिक चेतना आयगी तभी वह सुरक्षित रह पायेगा और कोई भी सरकार उसकी उचित मांगों को ठुकरा नहीं पायेगी |
टी. डी. चाँदना
आगरा