COMMON GROUND FOR A HINDU RASHTRA AND STORM CLOUDSFROM THE PSEUDO SECULARISTS-Dr.Babu Suseelan.
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राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ तब और अब: भाग-1
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ तब और अब: भाग-2
वीर सावरकर ,गांधीजी एवं आर. एस. एस.
वीर सावरकर ,गांधीजी एवं आर. एस. एस.
( भारत विभाजन के संदर्भ में )
अनेक लोग आश्चर्य करते हैं की भारत में हिन्दुओं के इतने बहुमत के पश्चात्, वीर सावरकर एवं गाँधीजी जैसे सशक्त नेताओं के रहते और आर .एस. एस .जैसे विशाल संगठन की उपस्थिति के उपरांत भी 1947 ई. में हिन्दुओं ने मुस्लिम लीग की विभाजन की मांग को बिना किसी युद्ध व संघर्ष के कैसे स्वीकार कर लिया।
इन सबका कारण जानने के लिए मैंने अनेक पुस्तकों एवं प्रख्यात लेखकों के लेखो का अध्ययन किया जैसे कि श्री जोगलेकर, श्री विध्यासागर आनंद, वरिष्ठ प्रवक्ता विक्रम गणेश ओक, श्री भगवान् शरण अवस्थी एवं श्री गंगाधर इंदुलकर। इस प्रकार मेरा निष्कर्ष उनके दृष्टिकोण एवं मेरे स्वंय के अनुभव पर आधारित है।
सर्वप्रथम मैं नीचे वीर सावरकर एवं गाँधीजी कि विशेषताओं और नैतिक गुणों का विवरण देता हूँ जो विभाजन के समय भारतीय राजनीति के मुख्य आधार एवं पतवार थे, मैं उस समय के आर.एस.एस. के नेताओं का विवरण भी दूंगा। इसके साथ ही मैं उन घटनाओ को उद्घृत भी करूंगा जो उन दिनों घटित हुई जिसके फलस्वरूप विभाजन की दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी।
वीर सावरकर एक युग द्रष्टा थे। बचपन से ही प्रज्वलित शूरवीरता के भाव रखते थे, अन्यायी अधिकारियों के विरोध के लिए सदैव तत्पर रहते थे। वे कार्यशैली से भी उतने ही वीर थे जितने की विचारों से। अपनी मातृभूमि को अंग्रेजों की गुलामी की बेडियों से छुडाने के लिए उन्होंने एवं उनके परिवार के सभी सदस्यों ने परम् त्याग किये। उन्होंने अपनी पार्टी हिन्दू महासभा के कार्यकर्ताओं के साथ मुस्लिम लीग की भारत के विभाजन की नीति का पुरजोर विरोध किया और उनके डायरेक्ट एक्शन का सामना किया। वीर सावरकर जी ने अपनी पार्टी के साथ भारत को अविभाजित रखने के लिये अभियान चलाया। बड़ी संख्या में भारत एवं विदेशों में बुद्धिजीवी वर्ग ने वीर सावरकर के दृष्टिकोण हिन्दू राष्ट्रवाद को सराहा जो उन्होंने अपनी पुस्तक ‘हिंदुत्व‘ में प्रकाशित किया था। उन लोगों ने कहा कि वीर सावरकर का दृष्टिकोण साम्प्रदायिक न हो कर वैज्ञानिक है और यह भारत को साम्प्रदायिकता, जातिवाद एवं छेत्रवाद से बचा सकता है।
हिन्दू महासभा एवं आर.एस.एस. के संस्थापकों नें वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू राष्ट्रवाद को अपनी पार्टी की बुनियादी विचारधारा के अंतर्गत अपनाया, परन्तु कांग्रेस ने सदैव यही प्रचार किया कि वीर सावरकर एवं हिन्दू महासभा साम्प्रदायिक एवं मुस्लिम विरोधी हैं। सन 1940 में डा.हेडगेवार कि मृत्यु के पश्चात आर.एस.एस. ने भी वीर सावरकर एवं हिन्दू महासभा को कलंकित करने का अभियान चलाया। वे वीर सावरकर के अद्भुत एवं ओजस्वी व्यक्तित्व को तो हानि नहीं पहुंचा पाये पर इस प्रचार के कारण बड़ी संख्या में हिन्दू- हिन्दू महासभा से दूर रहे।
दूसरी और गांधीजी बिना संशय के एक जन नेता थे। 25 वर्षों के दीर्घ अंतराल तक वे स्वतंत्रता के लिए प्रयत्नशील रहे। जबकि वे आल इंडिया कांग्रेस के प्राथमिक सदस्य भी नहीं थे फिर भी वे पार्टी के सर्वे सर्वा रहे । उन्होंने कभी भी उस व्यक्ति को कांग्रेस के उच्च पद पर सहन नहीं किया जो उनके विपरीत दृष्टिकोण रखता था, या उनके वर्चस्व के लिए संकट हो सकता था। उदाहरण के लिए सुभाष चन्द्र बोस आल इंडिया कांग्रेस के अध्यक्ष चयनित हुए जो गाँधीजी की अभिलाषाओं के विरुद्ध थे। अतः गाँधीजी एवं उनके अनुयाइयों ने इतना विरोध किया कि उनके समक्ष झुकते हुए बोस को अपना पदत्याग करना पड़ा।
समस्या यह थी कि गाँधीजी का चरखा – उनका कम वस्त्रों में साधूओं जैसा बाना- उनकी महात्मा होने की छवि सामान्य धर्म भीरु हिन्दुओं को अधिक प्रभावित कर रही थी। उनका यह स्वरुप हिन्दू जनता को उनके नेतृत्व को स्वीकार करने के लिये प्रेरित करता था। इसी के रहते गाँधीजी की राजनीती में बड़ी से बड़ी गलती भी हिन्दू समाज नजरंदाज करता रहा।
गाँधीजी के अनेक अनुयाई उन्हे एक संत और राजनैतिज्ञ मानते हैं। वास्तव में वह दूर द्रष्टा न होने के कारण राजनैतिज्ञ नहीं थे और आध्यात्म से सरोकार ना होने कारण संत भी नहीं। यह कहा जा सकता है कि वे “संतो में राजनैतिज्ञ थे और राजनीतिज्ञयो में एक संत”। उनकी स्वीकार्यता का दूसरा कारण ब्रिटिश सरकार की ओर से उन्हें मिलने वाला प्रतिरोधात्मक सहयोग और भारत की आम जनता में उनके भ्रम उत्पन करने वाले स्वरुप की पैठ। यहीं कारण था कि अंग्रेज सरकार गाँधीजी को जेल में डालती थी जहाँ उन्हें हर तरह की सुविधाएं उपलब्ध रहती थी और उसके उपरांत हर बात के लिए गाँधीजी को ही सबसे पहले पूछती भी थी। यह सहयोग उन्हें बड़ा व स्वीकार्य नेता बनाने में सहायक रहा। दूसरी ओर गाँधीजी का अंग्रेजो को सहयोग भी समय समय पर कम नहीं रहा। भगत सिंह को फांसी के मामले में गाँधीजी का मौन व नकारात्मक रुख इसका ज्वलंत उदाहरण है, परन्तु उनकी संत रुपी छवि व अंग्रेजो का सहयोग एवं हिन्दुओं के बीच उनकी भ्रामक संतई की छवि ,गाँधीजी की स्वीकार्यता बनाती रही।
गाँधीजी कभी भी एक दृढ़ विचारों के व्यक्ति नहीं रहे उदाहरणार्थ एक समय में वह मुस्लिम लीग की विभाजन की मांग को ठुकराते हुए बोले थे कि “भारत को चीरने से पहले मुझे चीरो”। वह अपने विचारों में कितने गंभीर थे यह उनके शब्द ही उनके लिये बोलेंगे। कुछ ही महीनो के पश्चात 1940 में उन्होंने अपने समाचार पत्रों में लिखा कि मुसलमानों को संयुक्त रहने या ना रहने के उतने ही अधिकार होने चाहिए जितने कि शेष भारतियों को है। इस समय हम एक संयुक्त परिवार के सदस्य हैं और परिवार का कोई भी सदस्य पृथक रहने के अधिकार की मांग कर सकता है। दुर्भाग्य से जून 1947 में गाँधीजी ने आल इंडिया कांग्रेस के सदस्यों को मुस्लिम लीग की भारत विभाजन की मांग के लिये सहमत कराया उसके उपरांत ही पकिस्तान की रचना हुई। इस प्रकार पाकिस्तान की सृष्टि के फार्मूले (माउंटबेटन फार्मूला) को कांग्रेस ने अपना ठप्पा लगाया और पाकिस्तान अस्तित्व में आया।
गाँधी जी को उनके 28 वर्षों के लम्बे राजनेतिक कार्यकाल में मुसलमानों की कोई भी सहयोगी प्रतिक्रिया ना होने के पश्चात भी (जिनका स्वतंत्रता आन्दोलन में नगण्य सहयोग रहा) गाँधीजी उन्हें रिझाने मेंलगे रहे।एक बार तो गाँधीजी ने अंग्रेजो को भारत छोड़ते समय- भारत का राज्य मुसलमानों को सौपने तक का सुझाव दे डाला। 1942 में मुहम्मद अली जिन्नाह जो मुस्लिम लीग के अध्यक्ष थे, को लिखे पत्र में गाँधीजी ने कहा “सभी भारतियों की ओर से अंग्रेजो द्वारा मुस्लिम लीग को राज्य सौंपने पर हमें कोई भी आपत्ति नही है। कांग्रेस– मुस्लिम लीग द्वारा सरकार बनाये जाने पर कोई विरोध नहीं करेगी एवं उसमे भागीदारी भी करेगी।” उन्होंने कहा कि “वह पूरी तरह से गंभीर हैं और यह बात पूरी निष्ठा एवं सच्चाई से कह रहे हैं।”
इसके विपरीत मुस्लिम लीग ने यह आग्रह किया कि वह पाकिस्तान चाहती है (मुसलमानों के लिए एक अलग देश) और इससे कम कुछ भी नहीं। मुस्लिम लीग ने स्वतंत्रता आन्दोलन में कुछ भी सहयोग नहीं किया, उल्टे अवरोध लगाये और मुसलमानों के लिए पृथक देश की मांग करती रही। उसने कहा कि हिन्दुओ और मुसलमानों में कुछ भी समानता नहीं है और वे कभी भी परस्पर शान्तीपूर्वक नहीं रह सकते। मुसलमान एक पृथक राष्ट्र है, अर्थात उनके लिये पृथक पाकिस्तान चाहिये। मुस्लिम लीग ने अंग्रेजो से कहा कि वे भारत तब तक न छोड़े जब तक कि भारत का विभाजन ना हो जाये और मुसलमानों के लिये एक पृथक देश “पाकिस्तान” का सृजन ना कर जाये।
मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन के कारण भारत में विस्तृत पैमाने पर दंगे हुए, जिनमे हजारो हिन्दू मारे गए और स्त्रियाँ अपमानित हुई, परन्तु कांग्रेस, व गांधीजी मुस्लिम तुष्टिकरण व झूठी अहिंसा की नीति के अंतर्गत चुप ही रहे और कोई भी प्रतिक्रिया नही दिखाई।
इस प्रकार नेहरु व गाँधीजी ने पकिस्तान की मांग के समक्ष अपने घुटने टेक दिये और कांग्रेस पार्टी के अन्य नेताओ को भारत विभाजन अथार्त पाकिस्तान के सृजन के लिये मना लिया। विभाजन के समय पूरे देश में भयंकर निराशा और डरावनी व्यवस्था छा गयी और कांग्रेस के भीतर एक कड़वी अनुभूति उत्पन्न हो गयी। पूरे देश में एक विश्वास घात, घोर निराशा व भ्रामकता का बोध छा गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भावी अध्यक्ष श्री पुरुषोत्तम दास टंडन के शब्दों में “गाँधीजी की पूर्ण अहिंसा की नीति ही भारत के विभाजन की उत्तरदायी थी”। एक कांग्रेसी समाचार पत्र ने लिखा “आज गांधीजी अपने ही जीवन के उद्देश्य (हिन्दू मुस्लिम एकता) की विफलता के मूक दर्शक है”।
इस प्रकार गाँधीजी की मुस्लिम तुष्टिकरण वाली नीतियों , जिन्नाह की जिद और डायरेक्ट एक्शन का कोई विरोध ना करने के कारण गाँधीजी एवं उनकी कांग्रेस को जो उस समय भारत की प्रमुख राजनैतिक पार्टी थी को ही भारत विभाजन के लिये उत्तरदायी माना जाना चाहिये। यह था दोनों राजनैतिक पार्टीयों – हिन्दू महासभा (वीर सावरकर के नेत्रत्व मे) व कांग्रेस (गाँधीजी के नेतृत्व वाली) का एक संक्षिप्त वर्णन, कि कैसे उन्होंने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान सृजन की मांग का सामना किया।
पाकिस्तान सृजन के अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये मुस्लिम लीग ने 1946 से ही डायरेक्ट एक्शन शुरू किया हुआ था। जिसका उद्देश्य हिंदुओं को भयभीत करना व कांग्रेस और गाँधीजी को पाकिस्तान की मांग को मानने के लिये विवश करना था। जिससे हजारो निर्दोष हिन्दुओ की हत्या हुई और सैकड़ो हिन्दू औरतों का अपहरण हुआ।
अनेक लोग कहते है कि यह सब कैसे हुआ जबकि भारत में इतना बहुमत हिन्दुओ का था और आर.एस. एस. (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) जैसा विशाल हिन्दू युवा संघटन था, जिसमे लाखो अनुशासित स्वयं सेवी युवक थे। ये प्रतिदिन शाखा में प्रार्थना करते थे एवं हिन्दू सुरक्षा के लिये कटिबद्ध थे व उनके लिये प्राण न्योछावर करने का संकल्प लिया करते थे। वे हिंदुस्तान व हिन्दू राष्ट्र स्थापना के लिये प्रतिज्ञा करते थे।
साधारण हिन्दू को आर.एस.एस. से बहुत आशाएं थी पर यह संगठन अपने उद्देश्य में पूर्णतः विफल रहा और इसने हिन्दुहित के लिये कोई भी संघर्ष या प्रयास नहीं किया। हिन्दुओ की आर.एस.एस. के प्रति निराशा स्वाभाविक है क्योंकि आर.एस.एस. उस बुरे समय में उदासीन व मूक दर्शक बनी रही। आर.एस.एस. आज तक इस बात का कोई संतोष जनक उत्तर नहीं दे पायी है कि वह क्यों उस समय सब वारदातों को अनदेखा करती रही।
उनकी चुप्पी का कारण ढूँढने के लिये हमें यह विदित होना आवश्यक है कि आर.एस.एस. का जन्म कैसे हुआ और नेतृत्व बदलने पर उनकी नीतियों में क्या बदलाव आये। 1922 में भारत के राजनीतिक पटल पर गाँधीजी के आने के पश्चात ही मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने अपना सर उठाना प्रारंभ कर दिया था। ‘खिलाफात आन्दोलन’ को गाँधीजी का सहयोग प्राप्त था – तत्पश्चात नागपुर व अन्य कई स्थानों पर हिन्दू-मुस्लिम दंगे प्रारंभ हो गये इससे नागपुर के कुछ हिन्दू नेताओ ने समझ लिया कि हिन्दू एकता ही उनकी सुरक्षा कर सकती है। इस प्रकार 28-09-1925 (विजयदशमी के पावन दिवस) को डा. मुंजे, डा. हेडगेवार, श्री परांजपे और बापू साहिब सोनी ने एक हिन्दू युवक क्लब की नीव डाली और डा. हेडगेवार को उसका प्रमुख बनाया गया। बाद में इसी संगठन को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का नाम दिया गया, जिसे साधारणतया आर.एस.एस. के नाम से जाना जाता है। इन स्वयं सेवको को शारीरिक श्रम, व्यायाम, हिन्दू राष्ट्रवाद की शिक्षा के साथ सैनिक शिक्षा भी दी जाती थी।
जब वीर सावरकर रत्नागिरी में दृष्टि बंद थे तब डा. हेडगेवार वहां उनसे मिलने गये। तब तक वह वीर सावरकर रचित पुस्तक हिन्दुत्व भी पढ़ चुके थे। डा. हेडगेवार उस पुस्तक के विचारों से बहुत प्रभावित हुए और उसकी सराहना करते हुए बोले कि “वीर सावरकर एक आदर्श व्यक्ति है”।
दोनों (सावरकर एवं हेडगेवार) का विश्वास था कि जब तक हिन्दू अंध विश्वास, पुरानी रूढ़िवादी सोच, धार्मिक आडम्बरो को नहीं छोडेंगे तब तक हिन्दू-जातीवाद , छूत-अछूत,शहरी – बनवासी और छेत्रवाद इत्यादि में बंटा रहेगा और वह संगठित एवं एक जुट नही होगा तब तक वह संसार में अपना उचित स्थान नही ले पायेगा।
1937 में वीर सावरकर की दृष्टिबंदी समाप्त हो गयी और अब वे राजनीति में भाग ले सकते थे। उसी वर्ष वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये जिसके उपाध्यक्ष डा. हेडगेवार थे। 1937 में हिन्दू महासभा का भव्य अधिवेशन कर्णावती (अहमदाबाद) में हुआ। इस अधिवेशन में वीर सावरकर के भाषण को “हिन्दू राष्ट्र दर्शन” के नाम से जाना जाता है।
क्योकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापकों में से दो प्रमुख डा. मुंजे एवं डा. हेडगेवार प्रमुख हिन्दू महासभाई थे, और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू एवं हिन्दू राष्ट्रवाद की व्याख्या को ही अपना आधार बनाया था एवंम वीर सावरकर के मूलमंत्र अस्पर्श्यता निवारण और हिन्दुओ के सैनिकीकरण आदि सिद्धांत को मान्य किया था, इसलिए यह माना जाता रहा कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, हिन्दू महासभा की ही युवा शाखा है।
हिन्दू महासभा ने भी उस समय एक प्रस्ताव पास कर अपने कार्यकर्ताओ एवं सदस्यों को निर्देश दिया कि वे अपने बच्चों को संघ की शाखा में भेजें एवं संघ के विस्तार में सहयोग दें। आर. एस. एस. की विस्तार योजना के अनुसार उसके नागपुर कार्यालय से बड़ी संख्या में युवक दो जोड़ी धोती एवं कुर्ता ले कर संघ शाखाओ की स्थापना हेतु दिल्ली, लाहौर, पेशावर, क्वेटा, मद्रास, गुवाहाटी आदि शहरों में भेजे गये।
दिल्ली में पहली शाखा हिन्दू महासभा भवन, मंदिर मार्ग नयी दिल्ली के प्रांगण में हिन्दू सभाई नेता प्राध्यापक राम सिंह की देख रेख में श्री बसंत राव ओक द्वारा संचालित की गयी। लाहौर में शाखा हिन्दू महासभा के प्रसिद्द नेता डा. गोकुल चंद नारंग की कोठी में लगायी जाती थी, जिसका संचालन श्री मुले जी एवं धर्मवीर जी (जो महान हिन्दू सभाई नेता देवता स्वरुप भाई परमानन्द जी के दामाद थे ) द्वारा किया जाता था। पेशावर में आर. एस. एस. की शाखा सदर बाजार से सटी गली के अंदर हिन्दू महासभा कार्यालय के अंदर लगायी जाती थी जिसकी देख रेख श्री मेहर चंद जी खन्ना तत्कालिक सचिव हिन्दू महासभा करते थे।
वीर सावरकर के बड़े भाई श्री बाबाराव सावरकर ने अपने युवा संघ जिसके उस समय लगभग 8,000 सदस्य थे ने, उस संगठन को आर. एस. एस. में विलय कर दिया। वीर सावरकर के मित्र एवं हजारों ईसाईयों को शुद्धि द्वारा दोबारा हिन्दू धर्म में लाने वाले संत पान्च्लेगॉंवकर ने उस समय अपने 5,000 सदस्यों वाले संगठन “मुक्तेश्वर दल” को भी आर.एस.एस. में विलय करा दिया। उद्देश्य था कि हिन्दुओ का एक ही युवा शक्तिशाली संगठन हो।
इस तरह डा. हेडगेवार के कुशल निर्देशन, हिन्दू महासभा के सहयोग एवं नागपुर से भेजे गये प्रचारकों के अथक परिश्रम एवं तपस्या के कारण संघ का विस्तार होता गया और 1946 के आते आते संघ के युवा स्वयंसेवकों की संख्या करीब सात लाख हो गयी थी। उन प्रचारको की लगन सराहनीय थी। इनके पास महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, बन्दा बैरागी की जीवनी की छोटी छोटी पुस्तके एवं वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक हिंदुत्व रहती थी।
1938 में वीर सावरकर दूसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये और यह अधिवेशन नागपुर में रखा गया। इस अधिवेशन का उत्तर दायित्व पूरी तरह से आर.एस.एस. के स्वयं सेवको द्वारा उठाया गया। इसका नेतृत्व उनके मुखिया डा. हेडगेवार ने किया था। उन्होंने वीर सावरकर के लिए असीम श्रद्धा जताई। पूरे नागपुर शहर में एक विशाल जलूस निकाला गया, जिसमे आगे आगे श्री भाऊराव देवरस जो आर.एस.एस. के उच्चतम श्रेणी के स्वयं सेवक थे,वे हाथी पर अपने हाथ में भगवा ध्वज ले कर चल रहे थे।
हैदराबाद, दक्षिण के मुस्लिम शासक निजाम ने वहाँ के हिन्दुओ का जीना दूभर कर रखा था। यहाँ तक की कोई हिन्दू मंदिर नहीं बना सकता था और यज्ञ आदि करने पर भी प्रतिबन्ध था। 1938 में आर्य समाज ने निजाम हैदराबाद के जिहादी आदेशो के विरुद्ध आन्दोलन करने की ठानी। गाँधीजी ने आर्य समाज को आन्दोलन ना करने की सलाह दी। वीर सावरकर ने कहा कि अगर आर्य समाज आन्दोलन छेड़ता है तो हिन्दू महासभा उसे पूरा पूरा समर्थन देगी।
आंदोलन चला, लगभग 25,000 सत्याग्रही देश के विभिन्न भागो से आये, निजाम की पुलिस और वहाँ के रजाकारो द्वारा उन सत्याग्रहीयों की जेल में बेदर्दी से पिटाई की जाती थी। बीसियो सत्याग्रहीयों की रजाकारो कि निर्मम पिटाई से मृत्यु हो गयी। इन सत्याग्रहियों में कोई 12,000 हिन्दू महासभाई थे। वीर सावरकर ने स्वयं पूना जा कर कई जत्थे हैदराबाद भिजवाये। पूना से सबसे बड़ा जत्था हुतात्मा नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद भिजवाया, इनमे हिन्दू महासभा कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त संघ के भी कई स्वयं सेवक थे। इस तरह 1940 तक, जब तक डा. हेडगेवार जीवित थे, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को हिन्दू महासभा का युवा संगठन ही माना जाता था।
परन्तु डा. हेडगेवार की 1940 में मृत्यु के बाद जिन हाथो में संघ का नेतृत्व आया, उन्होंने संघ की दिशा ही बदल दी। जिससे हिन्दू वादी आंदोलन तो शिथिल हुआ ही साथ ही इस संगठन का लाभ हिन्दू एवं हिंदुस्तान को नहीं मिल पाया।
1939 के अधिवेशन के लिये भी वीर सावरकर तीसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये। यह अधिवेशन कलकत्ता में रखा गया था। इनमे भाग लेने वालो में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, श्री निर्मल चंद्र चटर्जी (कलकत्ता उच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायधीष), डा. मुंजे, महंत दिग्विजयनाथ, आर. एस. एस. प्रमुख डा. हेडगेवार, उनके सहयोगी श्री एम्. एस. गोलवलकर और श्री बाबा साहिब गटाटे भी थे।
हिन्दू महासभा एवं आर. एस. एस. के बीच कड़वाहट
जैसा विदित है कि वीर सावरकर पहले ही कलकत्ता अधिवेशन के लिये अध्यक्ष चुन लिये गये थे, परन्तु हिन्दू महासभा के अन्य पदों के लिये चुनाव अधिवेशन के मैदान में हुए। सचिव पद के लिये तीन प्रत्याक्षी थे (1) महाशय इन्द्रप्रकाश, (2) श्री गोलवलकर और (3) श्री ज्योति शंकर दीक्षित। चुनाव हुए और परिणाम स्वरुप महाशय इन्द्रप्रकाश को 80 वोट, श्री गोलवलकर को 40 और श्री ज्योति शंकर दीक्षित को मात्र 2 वोट प्राप्त हुए और इस प्रकार महाशय इन्द्रप्रकाश, हिन्दू महासभा कार्यालय सचिव के पद पर चयनित घोषित हुए।
श्री गोलवलकर जी को इस हार से इतनी चिढ हो गयी कि वे अपने कुछ साथीयों सहित हिन्दू महासभा से दूर हो गये। जून 1940 में डा. हेडगेवार कि अकस्मात मृत्यु हो गयी और उनके स्थान पर श्री गोलवलकर को आर.एस. एस. प्रमुख बना दिया गया। आर.एस.एस. प्रमुख का पद संभालने के थोड़े समय पश्चात ही उन्होंने श्री मार्तेंडेय राव जोग को सर संघ सेनापति के पद से हटा दिया, जिन्हें डा. हेडगेवार ने आर. एस. एस. के उच्च श्रेणी के स्वयं सेवको को सैन्य प्रशिक्षण देने के लिये नियुक्त किया था। इस प्रकार गोलवलकर जी ने अपने ही हाथों आर.एस.एस. की पराक्रमी शक्ति को प्राय: समाप्त ही कर दिया।
श्री गोलवलकर एक रूढ़िवादी व्यक्ति थे जो पुरानी धार्मिक रीतियो पर अधिक विश्वास रखते थे, यहाँ तक कि उन्होंने अपने पूर्वजो के लिये ही नहीं अपितु अपने जीवन काल में ही अपना भी श्राद्ध कर्म संपन्न कर दिया था। वे गंडा-ताबीज के हार पहने रहते थे, जो सम्भवत: किसी संत ने उन्हें किसी बुरे प्रभाव से बचाने के लिये दिए थे। श्री गोलवलकर का हिंदुत्व श्री वीर सावरकर और श्री हेडगेवार के हिंदुत्व से किंचित भिन्न था। श्री गोलवलकर के मन में वीर सावरकर के लिये उतना आदर सत्कार का भाव नहीं था जितना की डा. हेडगेवार के मन में था। डा. हेडगेवार, वीर सावरकर को आदर्श पुरुष मानते थे और उन्हें प्रातः स्मरणीय महापुरुष बताते थे (एक महान व्यक्ति जिसे हर प्रातः आदर पूर्वक याद किया जाना चाहिये)। यथार्थ में श्री गोलवलकर इतने दृढ़ विचार के न हो कर एक अपरिपक्व व्यक्ति थे, जो आर.एस.एस. जैसी विशाल संस्था का उत्तरदायित्व ठीक से उठाने के योग्य नही थे। आर.एस.एस. के स्वयं सेवको की संख्या 1946 में 7 लाख के लगभग थी।
श्री गोलवलकर के आर.एस.एस. का प्रमुख बनने के बाद हिन्दू महासभा एवं आर.एस.एस के बीच सम्बन्ध तनावपूर्ण बनते गये। यहाँ तक की श्री गोलवलकर ने वीर सावरकर एवं हिन्दू महासभा द्वारा चलाये जा रहे उस अभियान की आलोचना करनी शुरू कर दी जिसके अंतर्गत वे हिन्दू युवको को सेना में भर्ती होने के लिये प्रेरित किया जाता था। यह अभियान 1938 से सफलता पूर्वक चलाया जा रहा था और डा, हेडगेवार ने 1940 में अपनी मृत्यु तक इसका समर्थन किया था। सुभाष चंद्र बोस ने भी सिंगापुर से रेडियो पर अपने भाषण में इन युवको को सेना में भर्ती कराने के लिये श्री वीर सावरकर के प्रयत्नों की बहुत प्रशंसा की थी। हिन्दू महासभा के इस अभियान के कारण सेना में हिंदुओ की संख्या बढ़ने लगी, जिस पर मुस्लिम लीग ने बहुत बवाल मचाया और अंग्रेज सरकार से आग्रह किया कि सेना में हिंदुओ कि भर्ती बंद की जाये। क्योँकि उस समय द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था इस कारण सरकार को सेना में बढ़ोतरी करनी थी अतः मुस्लिम लीग के विरोध को नकार दिया गया। यह इसी अभियान का नतीजा था कि सेना में हिंदुओ की संख्या 36% से बढ़ कर 65% हो गयी, और इसी कारण विभाजन के तुरंत बाद पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर आक्रमण का भारतीय सेना मुंह तोड़ जवाब दे पायी। परन्तु श्री गोलवलकर के उदासीन व्यवहार एवं नकारात्मक सोच के कारण दोनों संगठनो के सम्बन्ध बिगड़ते चले गये।
एक ओर काँग्रेस व गाँधीजी ने अंग्रेजो को सहमति दी थी कि उनके द्वारा भारत छोड़े जाने से पहले, भारत कि सत्ता मुस्लिम लीग को सौपने पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। दूसरी ओर वे लगातार यह प्रचार भी करते रहे कि वीर सावरकर ओर हिन्दू महासभा साम्प्रदायिक है। डा. हेडगेवार की मृत्यु के उपरान्त आर.एस.एस. ने भी श्री गोलवलकर के नेत्रत्व में वीर सावरकर एवं हिन्दू महासभा के विरुद्ध एक द्वेषपूर्ण अभियान आरंभ कर दिया। श्री गंगाधर इंदुलकर (पूर्व आर.एस.एस. नेता) का कथन है कि श्री गोलवलकर यह सब वीर सावरकर की बढ़ती हुई लोकप्रियता (विशेषतयः महाराष्ट्र के युवको में) के कारण कर रहे थे। उन्हें भय था कि यदि सावरकर कि लोकप्रियता बढ़ती गयी तो युवक वर्ग उनकी ओर आकर्षित होगा ओर आर.एस.एस. से विमुख हो जायेगा। इस टिप्पणी के बाद श्री इंदुलकर पूछते है कि ऐसा कर के आर.एस.एस. हिंदुओ को संगठित कर रही थी या कि विघटित कर रही थी ।
काँग्रेस व आर.एस.एस. वीर सावरकर की छवि को कलंकित करने में ज्यादा सफल तो नहीं हो पाए, परन्तु काफी हद तक हिन्दू युवको को हिन्दू महासभा से दूर रखने में अवश्य सफल हो गए ।
1940 में डा. हेडगेवार की मृत्यु के पश्चात आर.एस.एस. के मूल सिद्धांतों में परिवर्तन आया। डा. हेडगेवार के समय वीर सावरकर (ना कि गांधीजी) आर.एस.एस. के प्रातः स्मरणीय महापुरुषों की सूची में नामांकित थे परन्तु श्री गोलवलकर के समय गाँधीजी का नाम प्रातः स्मरणीय में जोड़ दिया गया। डा. हेडगेवार की मृत्यु के पश्चात संघ के सिद्धांतों में मूलभूत परिवर्तन आया, इस बात का प्रमाण यह है कि जहाँ डा. हेडगेवार संघ के कार्यकर्ताओं के समक्ष संघ के ध्येय की विवेचना करते हुए कहते थे कि ““हिन्दुस्तान हिंदुओं का ही है”” वहाँ खंडित भारत में श्री गोलवलकर कलकत्ता की पत्रकार वार्ता में दिनांक 07-09-1949 को निःसंकोच कहते है कि “हिन्दुस्तान हिंदुओ का ही है, ऐसा कहने वाले दुसरे लोग है” – यह दुसरे लोग है हिन्दू महासभाई। (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – तत्त्व और व्यवहार पृ. 14, 38 एवं 64 और हिन्दू अस्मिता, इंदौर दिनांक 15-10-2008 पृ. 7, 8, एवं 9)
इस तरह श्री गोलवलकर जी ने संघ की दिशा ही बदल दी, इससे न सिर्फ हिन्दू आन्दोलन शिथिल पडा परन्तु संघ का लाभ जो हिन्दू एवं हिंदुस्तान को मिलना चाहिये था वह भी नही मिल पाया।
1946 में भारत में केंद्रीय विधानसभा के चुनाव हुए। काँग्रेस ने प्रायः सभी हिन्दू व मुस्लिम सीटों से चुनाव लड़ा। मुस्लिम लीग ने मुस्लिम सीटों पर जबकि हिन्दू महासभा ने कुछ हिन्दू सीटों से नामांकन भरा। हिन्दू महासभा से नामांकन भरने वाले प्रत्याशीयों में आर.एस.एस. के कुछ युवा स्वयं सेवक भी थे-जैसे बाबा साहिब गटाटे आदि। जब नामांकन भरने की तिथि बीत गयी तब श्री गोलवलकर ने आर.एस.एस. के इन सभी प्रत्याशीयों को चुनाव से अपना नाम वापिस लेने को कहा। क्योंकि नामांकन तिथि समाप्त हो चुकी थी अत: कोई अन्य व्यक्ति उनके स्थानों पर नामांकन नही भर सकता था। ऐसी स्थिति में इस तनावपूर्ण वातावरण में कुछ प्रत्याशीयों के चुनाव से हट जाने के कारण हिन्दू महासभा पार्टी के सदस्यों में निराशा छा गयी जिसका चुनाव परिणामों पर बुरा प्रभाव पढ़ना स्वाभाविक था। हिन्दू महासभा के साथ भी यही हुआ।
काँग्रेस सभी 57 हिन्दू स्थानों पर जीत गयी और मुस्लिम लीग ने 30 मुस्लिम सीटें जीत ली। यथार्थ में श्री गोलवलकर ने अप्रत्यक्ष रूप से उन चुनावों में काँग्रेस की सहायता ही की। इन चुनावों के परिणाम को अंग्रेज सरकार ने साक्ष्य के रूप लिया और कहा कि काँग्रेस पूरी हिन्दू जनसँख्या का प्रतिनिधित्व करती है, और मुस्लिम लीग भारत के सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है। अंग्रेज सरकार ने शिमला में काँग्रेस व मुस्लिम लीग की सभा बुलायी जिसमें पाकिस्तान की मांग पर विचार किया जा सके। उन्होने हिन्दू महासभा को इन बैठकों में आमंत्रित ही नहीं किया।
जिस समय यह सभायें चल रही थी, उस समय सारे भारतवर्ष में दंगे हो रहे थे, विशेष तौर पर बंगाल (कलकत्ता-नोआखाली व सयुंक्त पंजाब में) जहां हजारों हिंदुओ की हत्याएं हो रही थी और लाखों हिंदुओं ने मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से अपने घर बार छोड़ दिए थे। यह सब मुस्लिम लीग और उसके मुस्लिम नेशनल गार्डस द्वारा किया जा रहा था। जिससे हिंदुओं में दहशत छा जाए और उसके बाद गांधीजी और काँग्रेस उनकी पाकिस्तान की मांग को मान लें।
अंग्रेज सरकार, काँग्रेस और मुस्लिम लीग की माउन्टबैटन के साथ यह सभायें जून और जुलाई 1947 में शिमला में हुई। अंत में 3 जून 1947 के उस प्रस्तावित फार्मूले को मान लिया गया, जिसमें 14-08-1947 के दिन पकिस्तान का सृजन स्वीकारा गया। इस बात को काँग्रेस कमेटी व गाँधीजी दोनों ने स्वकृति दी। इस प्रस्ताव को माउन्ट बैटन फार्मूला कहते है। इसी फार्मूले के कारण भारत का विभाजन करके 14–08–1947 को पकिस्तान की सृष्टि हुई।
उस समय 7 लाख सदस्यों वाली आर.एस.एस. मूक दर्शक बनी रही। क्या यह धोखाधड़ी व देशद्रोह नहीं था? आज तक आर.एस.एस. अपने उस समय के अनमने व्यवहार का कोई ठोस कारण नहीं दे पायी है। इतने महत्व पूर्ण विषय और ऐसे कठिन मोड़ पर उन्होने हिंदुओं का कोई साथ नही दिया। उनके स्वयंसेवकों से पूछा जाना चाहिये कि उन्होने जब शाखा स्थल पर हिंदुओं की सुरक्षा और भारत को अविभाजित रखने के लिये प्रतिबद्धता जतायी थी, प्रतिज्ञाएं एवं प्रार्थनायें की थी, “त्वादियाय कार्याय बद्धा कटीयं । शुभ्माशिषम देहि तत्पूर्तये ।।” फिर वो अपने ध्येय व शपथ से क्योँ पीछे हट गये। स्पष्ट होता है कि यह श्री गोलवलकर के अपरिपक्व व्यक्तित्व के कारण हुआ जो डा. हेडगेवार की मृत्यु के बाद आर.एस.एस. के प्रमुख बने थे ।
जिस आर.एस.एस. के पास 1946 में 7 लाख युवा स्वयंसेवकों की शक्ति थी, उसने ना तो स्वयं कोई कदम उठाया जिससे वह मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन और पाकिस्तान की मांग का सामना कर सके और ना ही वीर सावरकर और हिन्दू महासभा को सहयोग दिया जो हिंदुओ की सुरक्षा और भारत को अविभाजित रखने के लिये कटिबद्ध व संघर्षरत थी। कुछ स्थानों पर जहाँ हिन्दू महासभा शक्तिशाली थी वहाँ उसके कार्यकर्ताओं ने मुस्लिम नेशनल गार्ड और मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओ को उचित प्रत्युत्तर दिया लेकिन ऐसी घटनाएं कम ही थीं।
अक्टूबर 1944 में वीर सावरकर ने सभी हिन्दू संगठनो की (राजनैतिक और गैर राजनैतिक) और कुछ विशेष हिन्दू नेताओ की नयी दिल्ली में एक सभा बुलायी जिसमें यह विचार करना था कि मुस्लिम लीग की ललकार व मांगो का सामना कैसे किया जाये। इस सभा में अनेक लोग उपस्थित हुए, जैसे – श्री राधा मुकुंद मुखर्जी (सभा अध्यक्ष), पुरी के श्री शंकराचार्य, मास्टर तारा सिंह, श्री जोगिन्दर सिंह जी, डा. खरे एवं श्री जमुना दास मेहता आदि। परन्तु आर.एस.एस. के मुखिया श्री गोलवरकर इतनी आवश्यक सभा में नहीं पहुंचे। भारत विभाजन के पश्चात भी आर.एस.एस. ने हिन्दू महासभा के साथ असहयोग किया- जैसे वाराणसी के विश्वनाथ मंदिर आंदोलन, सामान नागरिक कानून और क़ुतुब मीनार परिसर में ध्वस्त किये गये विष्णु मंदिर के लिये हिन्दू महासभा द्वारा चलाये गये आन्दोलन।
क्या आर.एस.एस. का ‘संगठन मात्र संगठन’ के लिये ही था? उनकी इस प्रकार की उपेक्षा पूर्ण नीति व व्यवहार आश्चर्य जनक व अत्यंत पीड़ादायी है। इस प्रकार केवल काँग्रेस व गाँधीजी ही विभाजन के लिये उत्तरदायी नहीं है अपितु आर.एस.एस. और उसके नेता श्री गोलवलकर भी हिंदुओ के कष्टों एवं मातृभूमि के छलपूर्वक किये गए विभाजन के लिये उतने ही उत्तरदायी हैं।
इतिहास उन सब लोगों से हिसाब मांगेगा ही जिन्होंने हिन्दू द्रोह किया, साथ ही उन हिन्दू नेताओ और संस्थाओं के अलमबरदारों को भी जवाब देना होगा जो उस कठिन समय पर मौन धारण कर निष्क्रिय बैठे रहे।
इतिहास गवाह है कि केवल वीर सावरकर और हिन्दू महासभा ही हिन्दू हित के लिये संघर्षरत थे। परन्तु आर.एस.एस. के उपेक्षापूर्ण व्यवहार के कारण और हिन्दू जनता का पूर्ण समर्थन ना मिलने के कारण वे अपने प्रयत्नों में सफल नहीं हो पाये जिससे वे मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग को असफल बना सकते।
अंततः पाकिस्तान बना जो भारत के लिये लगातार संकट और आज तक की राजनैतिक परेशानियों का कारण बना हुआ है। 14-08-1947 को पाकिस्तान का सृजन – हिन्दू व हिन्दुस्तान के लिये एक काला दिवस ही है।
टी. डी. चाँदना
आई.आर.एस.(रिटा.)
आगरा-१
हिन्दुओं में राजनैतिक चेतना कैसे आये
हिंदुओं में राजनैतिक चेतना कैसे आये- एक सुझाव
दिनाँक ४/६/२०११ को योग गुरु स्वामी रामदेव अपने लाखों समर्थकों के साथ दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे थे| उनकी मुख्य मांग थी की सरकार भारतियों द्वारा विदेशी बैंको में जमा काले धन को राष्ट्रीय सम्पति घोषित करे और उसे हिन्दुस्तान वापिस लाए और भ्रष्टाचार के विरुद्ध सख्त एवं कठोर कानून बनाए| स्वामी जी की मांगो के समर्थन में लाखों महिलाएं एवं बच्चे भी अनशन कर रहे थे| स्वामी जी कालेधन की भारत वापसी की मांग काफी समय से करते रहे है पर जब सरकार द्वारा इस विषय पर कोई संतोषजनक कार्यवाही नहीं की गई तो विवश होकर उन्हे अपने समर्थकों के साथ अनशन करने का निर्णय करना पड़ा |
उस रात लगभग १२ बजे दिल्ली व केन्द्र की कांग्रेस सरकार के इशारे पर लगभग ५००० पुलिसकर्मीयों ने वहां आकर निहत्थे औरतों और बच्चों पर आँसू गैस के गोले छोड़े और निर्दयता पूर्वक लाठीचार्ज किया जिसमें हरियाणा की एक महिला “राजबाला” की दर्दनाक मौत के साथ सैकड़ों लोग बुरी तरह घायल हुये| पंडाल को खाली कराने के बाद पुलिस जबरन स्वामी जी को पकड़ कर उनके आश्रम हरिद्वार छोड आई|
जनता में सरकार के इस बर्बरता पूर्ण कार्यवाही के प्रति रोष है| सुप्रीम कोर्ट ने इस कांड का स्वत: संज्ञान लेते हुए सरकार व पुलिस अधिकारियों से जबाब माँगा है| पुलिस अधिकारियों ने अपने बचाव में अपनी इस कार्यवाही के कई कारण बताये है| मामला सुप्रीम कोर्ट में है, वह देखेगी की क्या पुलिस के पास ऐसी कार्यवाही का कोई उचित कारण था या नहीं?
जनता के मन में इस बर्बरता पूर्ण पुलिस कार्यवाही पर इसलिए और भी रोष है क्योंकि इससे कुछ दिन पहले इसी रामलीला मैदान के नजदीक ही कश्मीरी अलगाववादी नेता सैय्यद अलीशाह जिलानी ने एक सभा का आयोजन किया था| उसमें कई नेताओं ने कश्मीर में कार्यरत भारतीय सेना की निंदा की थी | इतना ही नहीं कश्मीर को भारत का अंग न मानते हुये इसे एक विवादित प्रदेश तक कहा| दूसरे शब्दों में उन्होने भारत की संप्रभुता- अखंडता और भारतीय संविधान तक को चुनौती दी, पर उन देश द्रोही लोगों के विरुद्ध अभी तक कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की गई| जनता पूछ रही है कि दोनों सम्मेलनों के प्रति भारत सरकार व पुलिस का ऐसा भिन्न एवं भेदभाव पूर्ण नजरिया व व्यवहार क्यों है?
वस्तुतः भारत के नागरिकों के प्रति सरकार के भेदभाव पूर्ण व्यवहार का यह अकेला उदाहरण नहीं है| भारत में ही “पर्सनल सिविल ला” (personal civil law) हिंदुओं के लिए अलग और मुस्लिमों के लिए अलग क्यों लागू किया गया है? ऐसा भिन्न भेद मात्र मेजोरिटी एवं मायनोरटी शिक्षा संस्थानों के प्रति भी है| भारत के नागरिकों खासकर हिंदू एवं मुसलमानों के प्रति एक लोकतन्त्र में सेकुलर कहलाने वाली सरकार द्वारा ऐसा भेदभाव पूर्ण व्यवहार न सिर्फ अशोभनीय है बल्कि निन्दनीय भी है|
सरकार द्वारा ऐसा भेदभाव पूर्ण व्यवहार ही हिंदू एवं मुस्लिम समाज के बीच कड़वाहट का कारण बना हुआ है | सम्भवतः स्वतंत्र भारत की सरकार भी अंग्रेजी सरकार की तरह फूट डालो और राज करो की नीति को लागू किये रहने में ही अपना हित समझती है| कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो केस में मुस्लिम पर्सनल ला पर टिप्पणी करते हुए “कामन सिविल ला कोड” (common civil law code) बनाने की सरकार को राय दी थी| परन्तु सरकार ने कुछ मुस्लिम नेताओं और कट्टरवादी मुल्लाओं के विरोध को देखते हुए संविधान में ही ऐसा परिवर्तन कर दिया जिससे सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट स्वयं ही निष्प्रभावी(nulify) कर दिया गया|
इसके विपरीत कुछ समय पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बैंच ने अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि मामले पर फैसला दिया था कि विवादित स्थान ही राम जन्म स्थान/ राम जन्मभूमि है| इसके बाद कई हिंदू संस्थाओं ने मांग रखी कि इस फैसले को देखते हुये भारत सरकार को ऐसा कानून बनाना चाहिये जिससे राम मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त हो और जिससे हिंदू मुस्लिमों में बना हुआ विवाद हमेशा के लिए समाप्त हो जाए| पर संभवतः भारत की कांग्रेसी सरकार ने अपनी फूट डालो और राज करो और मुस्लिम तुष्टिकरण की राष्ट्रघाती नीति के अनुसार हिंदुओं की मांग को अनसुना कर दिया|
साफ़ है की सरकार मुस्लिम नेताओं को खुश करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी(nullify) कर देती है और हिंदुओं की मांग पर हाई कोर्ट के फैसले के बाद भी ऐसा कानून बनाने को तैयार नहीं जिससे राम जन्म भूमि (जिसे हाई कोर्ट के तीनों जजों की बैंच ने राम जन्म स्थान स्वीकार किया है) पर भव्य राम मंदिर का निर्माण हो सके|
आखिर क्यों मुस्लिम नेताओं की हर बात मानी जाती है और हिंदू नेतओं की नहीं? वजह साफ है मुस्लिम समाज में राजनैतिक जागरूकता और एकता है जबकि हिंदू समाज में इन दोनों तत्वों का अभाव है|
ऐसे में विचारणीय विषय यह है कि क्यों मुस्लिम समाज में राजनैतिक जागरूकता और एकता है और क्यों हिंदुओं में इसका अभाव है? यह विषय शोध- अनुसंधान का हो सकता है| हर विचारवान व्यक्ति व मनोविज्ञान के विधार्थी की इस विषय में अलग अलग राय हो सकती है| इस विषय पर मेरी भी अपनी सोच है, जो मैने अपने अनुभवों के आधार पर बनाई है, उसे हिंदू हित चिंतकों की जानकारी एवं प्रतिक्रिया के लिए नीचे लिख रहा हूं|
अगर हिंदुओं में आज राजनैतिक जागृति एवं एकता का अभाव है तो मेरे विचार में इसके लिए काफ़ी हद तक हमारे आज के धर्म गुरु एवं धर्माचार्य ही उत्तरदायी है| हमारे अधिकांश धर्मगुरु प्रायः राजनीति और देश की मौजूदा परिस्थितियों से अनभिज्ञ तो हैं ही खेद का विषय है की वे इससे अनभिज्ञ ही बने भी रहना चाहते है| उनमें महर्षि वशिष्ठ, महर्षि व्यास या महात्मा विदुर जैसी सोच का नितांत अभाव है| यह लोग धर्माचार्य होते हुए भी राजनीति से विरक्त नहीं थे बल्कि उसे सही मार्गदर्शन देते थे जबकि आज के धर्माचार्य, हिंदू जनता को यह सिखाते है कि “ राजनीति तो वेश्या समान है इससे दूर रहो”, “संसार से विरक्त रहो”, “निर्लिप्त रहो”, “न घर तेरा न घर मेरा चिडिया रैन बसेरा”,“मोक्ष की सोचो, संसार मिथ्या है”| “हिंदू और
हिन्दुस्तान की बात करना तुच्छ सोच है” “सम्पूर्ण मानव या विश्व कल्याण की बात करो” (भले ही ऐसी स्थिति में हिंदू और हिंदुस्तान लुटता रहे )| यह धर्मगुरु/धर्माचार्य धार्मिक संकीर्तन एवं भंडारे कराने तक ही सीमित रहते है|
एक धर्म गुरु से जब प्रश्न किया गया की विश्व में ७६ ईसाइयों के देश है, ५३ मुसलमानों के देश है, क्या हिंदुओं का कोई देश है? फिर देश विभाजन के समय हिंदुओं की जनसंख्या ८८% थी जो अब ८३% रह गई है| एक समय हिन्दुस्तान की सीमा हिंदूकुश थी फिर दर्रा खैबर रही और अब बाघा – अटारी हैं |इसका अर्थ ये कि हिंदू और हिन्दुस्तान दोनों छोटे होते जा रहे है तो क्या इसे खतरे की घंटी न माना जाये? तो उनका जबाब था हिंदू अमर है, इसे कोई नहीं मिटा सकता, जब भी धर्म पर संकट आता है ईश्वर स्वयं अवतार लेते हैं इसलिए इन बातों की चिंता मत करो केवल मोक्ष की बात करो यही कल्याण का मार्ग है| अधिकांश धर्मगुरु एवं धर्माचार्य देश, राष्ट्र और अपने समाज के प्रति इतने उदासीन है की उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं है की अगर हिंदू मिट गया या कमजोर होता गया तो कौन उन्हें शंकराचार्य या महामंडलेश्वर कहेगा और कौन उनके चरण स्पर्श करेगा| यह धर्मगुरु-चाणक्य, समर्थ गुरु रामदास व गुरु गोविन्द सिंह के महान कार्यों को भूल जाते है और उनका अनुसरण नहीं करते| यह धर्माचार्य केवल अपने को परम विद्वान, ज्ञानी और परोपकारी मानते हैं इसलिए किसी दूसरे की बात पर यह तवज्जो भी नहीं देते|हमें(खासकर ऐसे धर्मगुरूओं और धर्माचार्यों को) इस सत्य को समझना, समझाना और अंगीकार करना होगा कि कोई भी समाज राजनीति से दूर रहकर सुरक्षित नहीं रह सकता| इसीलिए तो वीर सावरकर ने राजनीती के हिन्दुकरण पर जोर दिया था और कहा था कि कोई भी समाज राजनैतिक वर्चस्व के बिना सुरक्षित नहीं रह सकता या यूँ कहे कि लंबे समय तक जीवित भी नहीं रह सकता|
अब भी हमारे समाज में इन धर्मगुरुओं की अच्छी पैठ है| देश में विभिन्न मठों के साथ जुड़े हुये इनकी संख्या लगभग २० लाख से अधिक ही है, अगर इनमें राजनैतिक जागरूकता आ जाये तो निश्चय ही ये लोग समाज में क्रांतिकारी सुधार ला सकते हैं |
अब जब कुछ धर्मगुरुओं को भी परेशान किया जा रहा है या उनके मठों की संपत्ति पर शिकंजा कसा जा रहा है जैसे जयेन्द्र सरस्वती जी महाराज ,स्वामी रामदेव जी, आशाराम बापू इत्यादि |ऐसे में संत समाज एवं धर्मगुरुओं को राजनीति का महत्त्व समझ में आ जाना चाहिए इसलिए अपने व हिंदू समाज के अस्तित्व की रक्षा के लिए उन्हें हिंदू राजनैतिक दल के साथ जुड़ कर स्पष्ट रूप से मैदान में आना ही होगा अन्यथा वे हिंदू समाज के साथ साथ स्वयं भी नष्ट हो जायेंगे|
आज भी कुछ हिंदू संस्थायें ऐसी हैं जो अपने – अपने तरीके से हिंदू जागरण के लिए कार्य कर रही हैं | इस उद्देश्य से वे छोटी-छोटी पुस्तकें व पर्चे भी छपवा कर वितरित करती हैं जैसे “जागो ! हिंदू जागो” – “हिंदू जागेगा देश का संकट भागेगा” इत्यादि | इन संस्थओं के प्रयास सराहनीय हैं| पर क्या अभी तक हिंदू जागा है और संगठित हुआ है और क्या उसमें राजनैतिक चेतना आई है? मेरे विचार से नहीं| उनके लेख पढ़ने में अच्छे लगते हैं | पढ़ने वाला व्यक्ति प्रायः सराहना भी करता है, कहता है ! वाह बहुत ठीक लिखा है पर इतने मात्र से वह किसी हिंदू राजनैतिक संगठन से जुड़ नहीं पाता| तो बात वहीं रह जाती है जैसे – “व्ही मेट, व्ही डिस्कस्ड, व्ही डिस्पर्सड” | इसका कारण भी मैं यही समझता हूं कि वे हिंदुओं को किसी विशेष हिंदू राजनैतिक दल से जुड़ने का आह्वान नहीं करते| वह किसी हिंदू राजनैतिक दल का नाम लेने से परहेज करते है जिससे आम हिंदू भ्रम कि स्थिति में रह जाता है और एक ध्वज के नीचे जमा नहीं हो पाते| संभवतः इसीलिए यह संस्थायें भी अपने उद्देश्य में ज्यादा सफल नहीं हो रही |
मैं कोई मनोवैज्ञानिक विश्लेषक नहीं हूं पर अपने अनुभव के आधार पर उनसे कहूँगा कि वे अपने प्रचार के तरीके में परिवर्तन लाए तो संभव है कि वे अपने उदेश्य में सफल होंगे|
ऐसे कई अन्य सज्जन है जो हिंदुओं के साथ हो रहे सरकारी अन्याय से परिचित भी है और अपने अपने तरीके से हिंदुओं की समस्याओं और उनकी बात को मीडिया में उठाते भी रहते है पर उनमें भी अधिकतर में राजनैतिक स्पष्टता का अभाव रहता है| वे हिंदू- हिंदू की बात तो करते है पर किसी हिंदू राजनैतिक पार्टी से जुड़ने से परहेज करते हैं और गर्व से कहते हैं कि वह किसी राजनैतिक दल से बंधे हुए नहीं हैं| इसलिए वह भी अन्य हिंदुओं को स्पष्ट मार्गदर्शन नहीं दे पाते| अतः उनके हिंदू जागरण एवं एकता के प्रयत्न ज्यादा सफल नहीं हो पाते| ऐसे लोगों के लिए मैं अपने अनुभवों के आधार पर एक वृतांत बताना चाहता हूं जिसका उद्देशय यह बताना है की क्यों मुस्लिम राजनीतिक रूप से अधिक जागरूक है और हिंदू नहीं|
भारत विभाजन से थोड़ा पहले मैंनें आयकर विभाग में नौकरी शुरू की और मेरी पहली पोस्टिंग रावलपिंडी में हुई जो अब पकिस्तान में है, मेरे मकान के पास एक सार्वजनिक वाचनालय था| दफ़्तर से छुट्टी के बाद मेरा ज्यादातर समय उस वाचनालय में अखबार आदि पढ़ने में निकलता था| पंजाब में उन दिनों उर्दू भाषा का बोलबाला था| मेरी भी पहली भाषा उर्दू थी| उस वाचनालय में एक अंग्रेजी की अखबार ट्रिब्यून एवं चार उर्दू के दैनिक पत्र आते थे| दैनिक पत्रों में ‘प्रताप एवं मिलाप’ दो पत्र जिसके मालिक हिंदू थे और दो उर्दू के दैनिक पत्र ‘नवाये वक्त एवं ज़मीदार’ आते थे| इन दोनों पत्रों के मालिक मुसलमान थे|
उन दिनों तीन मुख्य राजनैतिक दल थे| एक मुस्लिम लीग जो मुसलमानों के लिए अलग देश पकिस्तान की मांग कर रही थी| उसका कहना था की हिंदू एवं मुसलमानों में कुछ भी समानता नहीं है| दोनों का इतिहास ही अलग अलग नहीं है वरन दोनों के राष्ट्रपुरुष और सर्वोच्च श्रद्धा के केन्द्र भी अलग-अलग हैं| अतः दोनों कभी भी परस्पर शांतिपूर्वक नहीं रह सकते और कि मुसलमान एक अलग राष्ट्र है, इसलिए उनके लिए पृथक देश पाकिस्तान चाहिए| मुस्लिम लीग ने स्वतंत्रता आन्दोलन में कुछ भी सहयोग नहीं दिया उल्टे अवरोध ही लगाये थे और अंग्रेज सरकार से कहा था की वे भारत को तब तक छोड कर ना जायें जब तक भारत का विभाजन कर मुसलमानों के लिए एक अलग देश पकिस्तान ना बना दिया जाये| इस मुस्लिम लीग की नुमाइंदगी मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत अली खां कर रहे थे|
दूसरी पार्टी कांग्रेस थी जिसके नेता गाँधी जी एवं जवाहरलाल नेहरु थे| यह उस समय की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी थी| वह अहिंसात्मक तरीके से अंग्रेजों से स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे| अगस्त १९४२ में कांग्रेस ने “अंग्रेजों भारत छोडो” का आन्दोलन चलाया था जो असफल रहा | उसके बाद गांधीजी नें निराशा व कुंठा में यह निष्कर्ष निकाला कि मुसलमानों और मुस्लिम लीग के सहयोग के बिना उनका आन्दोलन सफल नहीं हो सकता| इसलिए गांधीजी ने मुस्लिम लीग एवं उसके अध्यक्ष मोहम्मद अली जिन्ना की खुशामद करनी शुरू करदी और वे मोहम्मद अली जिन्ना के मुंबई स्थित घर के चक्कर लगाने लगे| गाँधी जी ने यहाँ तक कह दिया कि “अगर अंग्रेज भारत छोड़ते समय सम्पूर्ण भारत की सत्ता मुस्लिम लीग के हाथों में दे कर जाते है तो उंन्हें उस पर भी कोई आपत्ति नहीं होगी और ऐसी स्थिति में वे मुस्लिम लीग की सरकार को अपना सहयोग भी देंगे|”
तीसरा राजनैतिक दल था हिंदू महासभा| यह दल हिंदू हितों की बात करता था इनके नेता थे प्रसिद्ध क्रांतिकारी वीर विनायक दामोदर सावरकर एवं भाई परमानन्द जो भारत की स्वतंत्रता हेतु क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण अंग्रेज सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के आरोप में कालेपानी- अंडमान की लंबी यातना पूर्ण जेल काट कर आये थे| हिंदू महासभा हिंदू हितों की रक्षा की मांग करती थी एवं मुस्लिम लीग की पकिस्तान की मांग का विरोध करती थी| वे गाँधी जी द्वारा मुस्लिम लीग के अध्यक्ष को लिखे उस पत्र की भी विरोधी थी जिस पत्र में गांधीजी ने लिखा था की अगर अंग्रेज सरकार भारत छोड़ते समय भारत की सत्ता मुस्लिम लीग को दे कर जाती है तो इस पर उंन्हें(गांधीजी) व कांग्रेस को कोई आपत्ति नहीं होगी|
यह पार्टी अपने ढंग से स्वतन्त्रता आन्दोलन चला रही थी और उसका कहना था की “अगर मुसलमान साथ देते है तो उनको साथ लेकर, साथ नहीं देते है तो उनके बगैर, और अगर विरोध करते है तो उस विरोध को दरकिनार कर स्वतंत्रता आन्दोलन चलेगा और देश स्वतंत्र कराया जायेगा|”
ऐसी स्थिति में १९४६ में अंग्रेज सरकार ने भारत के सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली के चुनाव घोषित कर दिए| उस समय हिंदू एवं मुसलमानों के लिए अलग- अलग सीटें होती थीं| (जिसे कांगेस ने गांधीजी के मार्गदर्शन में उनके शिष्य भूला भाई देसाई ने कम्यूनल अवार्ड के रूप में अंग्रेज सरकार से समझौता कर स्वीकार किया था) यह कम्युनल अवार्ड, मुस्लिमों में अलगाववादी मनोवृति बढ़ाने वाला प्रावधान ही सिद्ध हुआ जो गांधीजी की अदूरदर्शिता ही प्रदर्शित करता है|
इन चुनावों में कांग्रेस ने लगभग सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किये, मुस्लिम लीग ने सभी मुस्लिम सीटों पर और हिंदू महासभा ने कुछ हिंदू सीटों पर अपने प्रत्त्याशी खड़े किये| हिन्दुमहासभा के टिकट पर चुनाव लड़ने वालों में आर. एस. एस. के कुछ नेताओं ने भी नामांकन भरे थे पर आर. एस. एस. नेतृत्व के यह कहने पर कि वे राजनीति से दूर रहें, आर. एस. एस. ने उन सभी उम्मीदवारों के नाम वापस करा दिए| जिस कारण हिंदू महासभा को इस चुनाव में काफ़ी बड़ा झटका लगा और उनके कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास ही नहीं टूटा वरन उनमें घोर निराशा भी छा गई|
उन दिनों अखबारों में इन सब राजनैतिक गतिविधियों की खूब चर्चा होती थी, राजनैतिक माहौल गर्म था| जनता में बैचनी व्याप्त थी| ऐसी स्थिति में भी हिंदू अखबार(प्रताप एवं मिलाप) अपने आप को मानवतावादी दिखाने के चक्कर में हिंदू जनता से अपील करते थे की उंन्हें अपना वोट पढ़े लिखे एवं ईमानदार व्यक्ति को देना चाहिए| इसके विपरीत मुस्लिम अखबार अपने मूल उद्देश्य के प्रति पूरी तरह स्पष्ट होने के कारण अपने समाचार पत्रों नवाये वक्त और ज़मीदार अखबारों में रोजाना कुछ इस तरह के लेख लिखते थे जैसे “ मुसलमानों, इस्लाम का परचम बुलंद रखने के लिए, मुसलमानों की बेह्बुदी के लिए और पकिस्तान की तामीर के लिए आपको अपना वोट सिर्फ मुस्लिम लीग को ही देना चाहिए”(वह हिंदुओं की तरह नैतिकता का मुखौटा ओढने की बजाय अपने लोगों को स्पष्ट सन्देश देते थे)|
चुनाव के नतीजे भी कुछ ऐसे ही रहे| उत्तर-पश्चिम सीमाप्रांत को छोड कर सभी मुस्लिम सीटों पर मुस्लिम लीग जीती उसे लगभग ९३% मुस्लिम वोट मिले| हिंदू सीटों पर कांग्रेस जीती उसे लगभग ८४% हिन्दुओं के वोट मिले| हिंदू महासभा को इस चुनौती पूर्ण समय में आर. एस. एस. के असहयोग, अदूरदर्शी एवं भ्रम उत्पन्न करने वाली स्थिति के कारण लगभग १६% हिंदू वोट ही मिले| इस चुनाव में आर. एस. एस. का भी अप्रत्यक्ष समर्थन कांग्रेस को मिला| इन्हीं चुनाव के नतीजों के कारण ही पकिस्तान का निर्माण हुआ|
तभी से मेरी यह पक्की धारणा बनी कि क्योंकि मुस्लिम धर्म- गुरु, मुल्ला, मौलवी, मुस्लिम लेखक एवं उनके समाचार पत्र खुलकर इस्लाम एवं अपनी राजनैतिक पार्टी(मुस्लिम लीग) का नाम ले लेकर जनता से उसे समर्थन देने कि बात करते है जबकि हिंदू लेखक, हिंदू धर्माचार्य , हिंदू नेता , हिंदू अखबार , अव्वल तो हिंदुओं को राजनीति से दूर रहने कि सलाह देने के साथ मोक्ष और आत्म कल्याण एवं विश्व कल्याण के पलायन वादी प्रवचन सुनाते है| कुछ नेता हिंदू-हिंदू की बात करते हैं पर वे भी किसी विशेष हिंदू राजनैतिक पार्टी का नाम नहीं लेते और न ही किसी पार्टी से जुड़ने की बात करते हैं| वे हिंदू हितों कि बातें करेंगे, हिन्दुओ पर हो रहे अत्याचार व अन्याय का रोना भी रोएंगे पर हिंदू राजनैतिक पार्टी का नाम लेने से उन्हें परहेज होता है| वे तटस्थ रहने व अपने को असम्बद्ध रखने का दिखावा करने का प्रयास करते है| यही कारण है हिंदुओं के राजनैतिक पिछड़ेपन का और भ्रमित बने रहने का | इसी कारण हिंदुओं में एकता , संगठनात्मक ढ़ाचे का एवं राजनैतिक चेतना का अभाव है | आखिर हम क्यों किसी संवैधानिक हिंदू राजनैतिक दल का सदस्य या कार्यकर्त्ता कहलाने में संकोच या शर्म महसूस करें ? अगर हम किसी हिंदू संवैधानिक राजनैतिक दल से जुडेंगे, उसे शक्तिशाली बनायेंगे तभी तो वह हिंदुओं के साथ हो रही ज्यादतियों से छुटकारा दिलवा सकेगी |
मेरा मानना है कि जब तक देश का कम से कम २०% हिंदू वोट बैंक के रूप में एकजुट नहीं होगा अर्थात उसका वोट एकजुट होकर मात्र हिंदू, हिंदुत्व और हिन्दुस्थान के लिए नहीं पड़ेगा और वह जातिवाद, भाषावाद या प्रान्तीयता के नज़रिए से ऊपर उठ कर हिंदू एवं राष्ट्रीय हित के विचार से अपना वोट नहीं डालेगा तब तक उसकी चिंता कोई नहीं करेगा| उसके हित में कोई कानून नहीं बनेगा और उसका शोषण अथवा त्रिरस्कार होता रहेगा| बार-बार यह कहते रहना कि अधिकांश राजनैतिक पार्टियां वोट बैंक की खातिर मुस्लिम तुष्टिकरण कर रही हैं से कोई हल निकलने वाला नहीं है इसके लिए स्वंय भी एकजुट हो हिंदू वोट बैंक बनना ही इस समस्या का एकमात्र हल हो सकता है|
हिंदू नेतओं एवं धर्माचार्यों को इस रहस्य को समझना होगा तभी हिंदू का राजनैतिक पक्ष बलबती होगा और तब कोई भी सरकार हिन्दुओ की उचित मांगों को ठुकरा नहीं पायेगी| आशा करता हूं हिंदू हितचिन्तक मेरे इस विश्लेषण पूर्ण विवरण पर गंभीरता से विचार करेंगे और हिंदू जनता को सामाजिक, राजनैतिक एव बौद्धिक स्तर से जागरूक करते हुए पूर्ण रूप से राष्ट्रवादी बनाने में सहायक होंगे| जब हिंदू संगठित होगा, उसमें राजनैतिक चेतना आयगी तभी वह सुरक्षित रह पायेगा और कोई भी सरकार उसकी उचित मांगों को ठुकरा नहीं पायेगी |
टी. डी. चाँदना
आगरा
Aside
हिंदुओं में राजनैतिक चेतना कैसे आये- एक सुझाव
दिनाँक ४/६/२०११ को योग गुरु स्वामी रामदेव अपने लाखों समर्थकों के साथ दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे थे| उनकी मुख्य मांग थी की सरकार भारतियों द्वारा विदेशी बैंको में जमा काले धन को राष्ट्रीय सम्पति घोषित करे और उसे हिन्दुस्तान वापिस लाए और भ्रष्टाचार के विरुद्ध सख्त एवं कठोर कानून बनाए| स्वामी जी की मांगो के समर्थन में लाखों महिलाएं एवं बच्चे भी अनशन कर रहे थे| स्वामी जी कालेधन की भारत वापसी की मांग काफी समय से करते रहे है पर जब सरकार द्वारा इस विषय पर कोई संतोषजनक कार्यवाही नहीं की गई तो विवश होकर उन्हे अपने समर्थकों के साथ अनशन करने का निर्णय करना पड़ा |
उस रात लगभग १२ बजे दिल्ली व केन्द्र की कांग्रेस सरकार के इशारे पर लगभग ५००० पुलिसकर्मीयों ने वहां आकर निहत्थे औरतों और बच्चों पर आँसू गैस के गोले छोड़े और निर्दयता पूर्वक लाठीचार्ज किया जिसमें हरियाणा की एक महिला “राजबाला” की दर्दनाक मौत के साथ सैकड़ों लोग बुरी तरह घायल हुये| पंडाल को खाली कराने के बाद पुलिस जबरन स्वामी जी को पकड़ कर उनके आश्रम हरिद्वार छोड आई|
जनता में सरकार के इस बर्बरता पूर्ण कार्यवाही के प्रति रोष है| सुप्रीम कोर्ट ने इस कांड का स्वत: संज्ञान लेते हुए सरकार व पुलिस अधिकारियों से जबाब माँगा है| पुलिस अधिकारियों ने अपने बचाव में अपनी इस कार्यवाही के कई कारण बताये है| मामला सुप्रीम कोर्ट में है, वह देखेगी की क्या पुलिस के पास ऐसी कार्यवाही का कोई उचित कारण था या नहीं?
जनता के मन में इस बर्बरता पूर्ण पुलिस कार्यवाही पर इसलिए और भी रोष है क्योंकि इससे कुछ दिन पहले इसी रामलीला मैदान के नजदीक ही कश्मीरी अलगाववादी नेता सैय्यद अलीशाह जिलानी ने एक सभा का आयोजन किया था| उसमें कई नेताओं ने कश्मीर में कार्यरत भारतीय सेना की निंदा की थी | इतना ही नहीं कश्मीर को भारत का अंग न मानते हुये इसे एक विवादित प्रदेश तक कहा| दूसरे शब्दों में उन्होने भारत की संप्रभुता- अखंडता और भारतीय संविधान तक को चुनौती दी, पर उन देश द्रोही लोगों के विरुद्ध अभी तक कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की गई| जनता पूछ रही है कि दोनों सम्मेलनों के प्रति भारत सरकार व पुलिस का ऐसा भिन्न एवं भेदभाव पूर्ण नजरिया व व्यवहार क्यों है?
वस्तुतः भारत के नागरिकों के प्रति सरकार के भेदभाव पूर्ण व्यवहार का यह अकेला उदाहरण नहीं है| भारत में ही “पर्सनल सिविल ला” (personal civil law) हिंदुओं के लिए अलग और मुस्लिमों के लिए अलग क्यों लागू किया गया है? ऐसा भिन्न भेद मात्र मेजोरिटी एवं मायनोरटी शिक्षा संस्थानों के प्रति भी है| भारत के नागरिकों खासकर हिंदू एवं मुसलमानों के प्रति एक लोकतन्त्र में सेकुलर कहलाने वाली सरकार द्वारा ऐसा भेदभाव पूर्ण व्यवहार न सिर्फ अशोभनीय है बल्कि निन्दनीय भी है|
सरकार द्वारा ऐसा भेदभाव पूर्ण व्यवहार ही हिंदू एवं मुस्लिम समाज के बीच कड़वाहट का कारण बना हुआ है | सम्भवतः स्वतंत्र भारत की सरकार भी अंग्रेजी सरकार की तरह फूट डालो और राज करो की नीति को लागू किये रहने में ही अपना हित समझती है| कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो केस में मुस्लिम पर्सनल ला पर टिप्पणी करते हुए “कामन सिविल ला कोड” (common civil law code) बनाने की सरकार को राय दी थी| परन्तु सरकार ने कुछ मुस्लिम नेताओं और कट्टरवादी मुल्लाओं के विरोध को देखते हुए संविधान में ही ऐसा परिवर्तन कर दिया जिससे सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट स्वयं ही निष्प्रभावी(nulify) कर दिया गया|
इसके विपरीत कुछ समय पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बैंच ने अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि मामले पर फैसला दिया था कि विवादित स्थान ही राम जन्म स्थान/ राम जन्मभूमि है| इसके बाद कई हिंदू संस्थाओं ने मांग रखी कि इस फैसले को देखते हुये भारत सरकार को ऐसा कानून बनाना चाहिये जिससे राम मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त हो और जिससे हिंदू मुस्लिमों में बना हुआ विवाद हमेशा के लिए समाप्त हो जाए| पर संभवतः भारत की कांग्रेसी सरकार ने अपनी फूट डालो और राज करो और मुस्लिम तुष्टिकरण की राष्ट्रघाती नीति के अनुसार हिंदुओं की मांग को अनसुना कर दिया|
साफ़ है की सरकार मुस्लिम नेताओं को खुश करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी(nullify) कर देती है और हिंदुओं की मांग पर हाई कोर्ट के फैसले के बाद भी ऐसा कानून बनाने को तैयार नहीं जिससे राम जन्म भूमि (जिसे हाई कोर्ट के तीनों जजों की बैंच ने राम जन्म स्थान स्वीकार किया है) पर भव्य राम मंदिर का निर्माण हो सके|
आखिर क्यों मुस्लिम नेताओं की हर बात मानी जाती है और हिंदू नेतओं की नहीं? वजह साफ है मुस्लिम समाज में राजनैतिक जागरूकता और एकता है जबकि हिंदू समाज में इन दोनों तत्वों का अभाव है|
ऐसे में विचारणीय विषय यह है कि क्यों मुस्लिम समाज में राजनैतिक जागरूकता और एकता है और क्यों हिंदुओं में इसका अभाव है? यह विषय शोध- अनुसंधान का हो सकता है| हर विचारवान व्यक्ति व मनोविज्ञान के विधार्थी की इस विषय में अलग अलग राय हो सकती है| इस विषय पर मेरी भी अपनी सोच है, जो मैने अपने अनुभवों के आधार पर बनाई है, उसे हिंदू हित चिंतकों की जानकारी एवं प्रतिक्रिया के लिए नीचे लिख रहा हूं|
अगर हिंदुओं में आज राजनैतिक जागृति एवं एकता का अभाव है तो मेरे विचार में इसके लिए काफ़ी हद तक हमारे आज के धर्म गुरु एवं धर्माचार्य ही उत्तरदायी है| हमारे अधिकांश धर्मगुरु प्रायः राजनीति और देश की मौजूदा परिस्थितियों से अनभिज्ञ तो हैं ही खेद का विषय है की वे इससे अनभिज्ञ ही बने भी रहना चाहते है| उनमें महर्षि वशिष्ठ, महर्षि व्यास या महात्मा विदुर जैसी सोच का नितांत अभाव है| यह लोग धर्माचार्य होते हुए भी राजनीति से विरक्त नहीं थे बल्कि उसे सही मार्गदर्शन देते थे जबकि आज के धर्माचार्य, हिंदू जनता को यह सिखाते है कि “ राजनीति तो वेश्या समान है इससे दूर रहो”, “संसार से विरक्त रहो”, “निर्लिप्त रहो”, “न घर तेरा न घर मेरा चिडिया रैन बसेरा”,“मोक्ष की सोचो, संसार मिथ्या है”| “हिंदू और
हिन्दुस्तान की बात करना तुच्छ सोच है” “सम्पूर्ण मानव या विश्व कल्याण की बात करो” (भले ही ऐसी स्थिति में हिंदू और हिंदुस्तान लुटता रहे )| यह धर्मगुरु/धर्माचार्य धार्मिक संकीर्तन एवं भंडारे कराने तक ही सीमित रहते है|
एक धर्म गुरु से जब प्रश्न किया गया की विश्व में ७६ ईसाइयों के देश है, ५३ मुसलमानों के देश है, क्या हिंदुओं का कोई देश है? फिर देश विभाजन के समय हिंदुओं की जनसंख्या ८८% थी जो अब ८३% रह गई है| एक समय हिन्दुस्तान की सीमा हिंदूकुश थी फिर दर्रा खैबर रही और अब बाघा – अटारी हैं |इसका अर्थ ये कि हिंदू और हिन्दुस्तान दोनों छोटे होते जा रहे है तो क्या इसे खतरे की घंटी न माना जाये? तो उनका जबाब था हिंदू अमर है, इसे कोई नहीं मिटा सकता, जब भी धर्म पर संकट आता है ईश्वर स्वयं अवतार लेते हैं इसलिए इन बातों की चिंता मत करो केवल मोक्ष की बात करो यही कल्याण का मार्ग है| अधिकांश धर्मगुरु एवं धर्माचार्य देश, राष्ट्र और अपने समाज के प्रति इतने उदासीन है की उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं है की अगर हिंदू मिट गया या कमजोर होता गया तो कौन उन्हें शंकराचार्य या महामंडलेश्वर कहेगा और कौन उनके चरण स्पर्श करेगा| यह धर्मगुरु-चाणक्य, समर्थ गुरु रामदास व गुरु गोविन्द सिंह के महान कार्यों को भूल जाते है और उनका अनुसरण नहीं करते| यह धर्माचार्य केवल अपने को परम विद्वान, ज्ञानी और परोपकारी मानते हैं इसलिए किसी दूसरे की बात पर यह तवज्जो भी नहीं देते|हमें(खासकर ऐसे धर्मगुरूओं और धर्माचार्यों को) इस सत्य को समझना, समझाना और अंगीकार करना होगा कि कोई भी समाज राजनीति से दूर रहकर सुरक्षित नहीं रह सकता| इसीलिए तो वीर सावरकर ने राजनीती के हिन्दुकरण पर जोर दिया था और कहा था कि कोई भी समाज राजनैतिक वर्चस्व के बिना सुरक्षित नहीं रह सकता या यूँ कहे कि लंबे समय तक जीवित भी नहीं रह सकता|
अब भी हमारे समाज में इन धर्मगुरुओं की अच्छी पैठ है| देश में विभिन्न मठों के साथ जुड़े हुये इनकी संख्या लगभग २० लाख से अधिक ही है, अगर इनमें राजनैतिक जागरूकता आ जाये तो निश्चय ही ये लोग समाज में क्रांतिकारी सुधार ला सकते हैं |
अब जब कुछ धर्मगुरुओं को भी परेशान किया जा रहा है या उनके मठों की संपत्ति पर शिकंजा कसा जा रहा है जैसे जयेन्द्र सरस्वती जी महाराज ,स्वामी रामदेव जी, आशाराम बापू इत्यादि |ऐसे में संत समाज एवं धर्मगुरुओं को राजनीति का महत्त्व समझ में आ जाना चाहिए इसलिए अपने व हिंदू समाज के अस्तित्व की रक्षा के लिए उन्हें हिंदू राजनैतिक दल के साथ जुड़ कर स्पष्ट रूप से मैदान में आना ही होगा अन्यथा वे हिंदू समाज के साथ साथ स्वयं भी नष्ट हो जायेंगे|
आज भी कुछ हिंदू संस्थायें ऐसी हैं जो अपने – अपने तरीके से हिंदू जागरण के लिए कार्य कर रही हैं | इस उद्देश्य से वे छोटी-छोटी पुस्तकें व पर्चे भी छपवा कर वितरित करती हैं जैसे “जागो ! हिंदू जागो” – “हिंदू जागेगा देश का संकट भागेगा” इत्यादि | इन संस्थओं के प्रयास सराहनीय हैं| पर क्या अभी तक हिंदू जागा है और संगठित हुआ है और क्या उसमें राजनैतिक चेतना आई है? मेरे विचार से नहीं| उनके लेख पढ़ने में अच्छे लगते हैं | पढ़ने वाला व्यक्ति प्रायः सराहना भी करता है, कहता है ! वाह बहुत ठीक लिखा है पर इतने मात्र से वह किसी हिंदू राजनैतिक संगठन से जुड़ नहीं पाता| तो बात वहीं रह जाती है जैसे – “व्ही मेट, व्ही डिस्कस्ड, व्ही डिस्पर्सड” | इसका कारण भी मैं यही समझता हूं कि वे हिंदुओं को किसी विशेष हिंदू राजनैतिक दल से जुड़ने का आह्वान नहीं करते| वह किसी हिंदू राजनैतिक दल का नाम लेने से परहेज करते है जिससे आम हिंदू भ्रम कि स्थिति में रह जाता है और एक ध्वज के नीचे जमा नहीं हो पाते| संभवतः इसीलिए यह संस्थायें भी अपने उद्देश्य में ज्यादा सफल नहीं हो रही |
मैं कोई मनोवैज्ञानिक विश्लेषक नहीं हूं पर अपने अनुभव के आधार पर उनसे कहूँगा कि वे अपने प्रचार के तरीके में परिवर्तन लाए तो संभव है कि वे अपने उदेश्य में सफल होंगे|
ऐसे कई अन्य सज्जन है जो हिंदुओं के साथ हो रहे सरकारी अन्याय से परिचित भी है और अपने अपने तरीके से हिंदुओं की समस्याओं और उनकी बात को मीडिया में उठाते भी रहते है पर उनमें भी अधिकतर में राजनैतिक स्पष्टता का अभाव रहता है| वे हिंदू- हिंदू की बात तो करते है पर किसी हिंदू राजनैतिक पार्टी से जुड़ने से परहेज करते हैं और गर्व से कहते हैं कि वह किसी राजनैतिक दल से बंधे हुए नहीं हैं| इसलिए वह भी अन्य हिंदुओं को स्पष्ट मार्गदर्शन नहीं दे पाते| अतः उनके हिंदू जागरण एवं एकता के प्रयत्न ज्यादा सफल नहीं हो पाते| ऐसे लोगों के लिए मैं अपने अनुभवों के आधार पर एक वृतांत बताना चाहता हूं जिसका उद्देशय यह बताना है की क्यों मुस्लिम राजनीतिक रूप से अधिक जागरूक है और हिंदू नहीं|
भारत विभाजन से थोड़ा पहले मैंनें आयकर विभाग में नौकरी शुरू की और मेरी पहली पोस्टिंग रावलपिंडी में हुई जो अब पकिस्तान में है, मेरे मकान के पास एक सार्वजनिक वाचनालय था| दफ़्तर से छुट्टी के बाद मेरा ज्यादातर समय उस वाचनालय में अखबार आदि पढ़ने में निकलता था| पंजाब में उन दिनों उर्दू भाषा का बोलबाला था| मेरी भी पहली भाषा उर्दू थी| उस वाचनालय में एक अंग्रेजी की अखबार ट्रिब्यून एवं चार उर्दू के दैनिक पत्र आते थे| दैनिक पत्रों में ‘प्रताप एवं मिलाप’ दो पत्र जिसके मालिक हिंदू थे और दो उर्दू के दैनिक पत्र ‘नवाये वक्त एवं ज़मीदार’ आते थे| इन दोनों पत्रों के मालिक मुसलमान थे|
उन दिनों तीन मुख्य राजनैतिक दल थे| एक मुस्लिम लीग जो मुसलमानों के लिए अलग देश पकिस्तान की मांग कर रही थी| उसका कहना था की हिंदू एवं मुसलमानों में कुछ भी समानता नहीं है| दोनों का इतिहास ही अलग अलग नहीं है वरन दोनों के राष्ट्रपुरुष और सर्वोच्च श्रद्धा के केन्द्र भी अलग-अलग हैं| अतः दोनों कभी भी परस्पर शांतिपूर्वक नहीं रह सकते और कि मुसलमान एक अलग राष्ट्र है, इसलिए उनके लिए पृथक देश पाकिस्तान चाहिए| मुस्लिम लीग ने स्वतंत्रता आन्दोलन में कुछ भी सहयोग नहीं दिया उल्टे अवरोध ही लगाये थे और अंग्रेज सरकार से कहा था की वे भारत को तब तक छोड कर ना जायें जब तक भारत का विभाजन कर मुसलमानों के लिए एक अलग देश पकिस्तान ना बना दिया जाये| इस मुस्लिम लीग की नुमाइंदगी मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत अली खां कर रहे थे|
दूसरी पार्टी कांग्रेस थी जिसके नेता गाँधी जी एवं जवाहरलाल नेहरु थे| यह उस समय की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी थी| वह अहिंसात्मक तरीके से अंग्रेजों से स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे| अगस्त १९४२ में कांग्रेस ने “अंग्रेजों भारत छोडो” का आन्दोलन चलाया था जो असफल रहा | उसके बाद गांधीजी नें निराशा व कुंठा में यह निष्कर्ष निकाला कि मुसलमानों और मुस्लिम लीग के सहयोग के बिना उनका आन्दोलन सफल नहीं हो सकता| इसलिए गांधीजी ने मुस्लिम लीग एवं उसके अध्यक्ष मोहम्मद अली जिन्ना की खुशामद करनी शुरू करदी और वे मोहम्मद अली जिन्ना के मुंबई स्थित घर के चक्कर लगाने लगे| गाँधी जी ने यहाँ तक कह दिया कि “अगर अंग्रेज भारत छोड़ते समय सम्पूर्ण भारत की सत्ता मुस्लिम लीग के हाथों में दे कर जाते है तो उंन्हें उस पर भी कोई आपत्ति नहीं होगी और ऐसी स्थिति में वे मुस्लिम लीग की सरकार को अपना सहयोग भी देंगे|”
तीसरा राजनैतिक दल था हिंदू महासभा| यह दल हिंदू हितों की बात करता था इनके नेता थे प्रसिद्ध क्रांतिकारी वीर विनायक दामोदर सावरकर एवं भाई परमानन्द जो भारत की स्वतंत्रता हेतु क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण अंग्रेज सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के आरोप में कालेपानी- अंडमान की लंबी यातना पूर्ण जेल काट कर आये थे| हिंदू महासभा हिंदू हितों की रक्षा की मांग करती थी एवं मुस्लिम लीग की पकिस्तान की मांग का विरोध करती थी| वे गाँधी जी द्वारा मुस्लिम लीग के अध्यक्ष को लिखे उस पत्र की भी विरोधी थी जिस पत्र में गांधीजी ने लिखा था की अगर अंग्रेज सरकार भारत छोड़ते समय भारत की सत्ता मुस्लिम लीग को दे कर जाती है तो इस पर उंन्हें(गांधीजी) व कांग्रेस को कोई आपत्ति नहीं होगी|
यह पार्टी अपने ढंग से स्वतन्त्रता आन्दोलन चला रही थी और उसका कहना था की “अगर मुसलमान साथ देते है तो उनको साथ लेकर, साथ नहीं देते है तो उनके बगैर, और अगर विरोध करते है तो उस विरोध को दरकिनार कर स्वतंत्रता आन्दोलन चलेगा और देश स्वतंत्र कराया जायेगा|”
ऐसी स्थिति में १९४६ में अंग्रेज सरकार ने भारत के सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली के चुनाव घोषित कर दिए| उस समय हिंदू एवं मुसलमानों के लिए अलग- अलग सीटें होती थीं| (जिसे कांगेस ने गांधीजी के मार्गदर्शन में उनके शिष्य भूला भाई देसाई ने कम्यूनल अवार्ड के रूप में अंग्रेज सरकार से समझौता कर स्वीकार किया था) यह कम्युनल अवार्ड, मुस्लिमों में अलगाववादी मनोवृति बढ़ाने वाला प्रावधान ही सिद्ध हुआ जो गांधीजी की अदूरदर्शिता ही प्रदर्शित करता है|
इन चुनावों में कांग्रेस ने लगभग सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किये, मुस्लिम लीग ने सभी मुस्लिम सीटों पर और हिंदू महासभा ने कुछ हिंदू सीटों पर अपने प्रत्त्याशी खड़े किये| हिन्दुमहासभा के टिकट पर चुनाव लड़ने वालों में आर. एस. एस. के कुछ नेताओं ने भी नामांकन भरे थे पर आर. एस. एस. नेतृत्व के यह कहने पर कि वे राजनीति से दूर रहें, आर. एस. एस. ने उन सभी उम्मीदवारों के नाम वापस करा दिए| जिस कारण हिंदू महासभा को इस चुनाव में काफ़ी बड़ा झटका लगा और उनके कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास ही नहीं टूटा वरन उनमें घोर निराशा भी छा गई|
उन दिनों अखबारों में इन सब राजनैतिक गतिविधियों की खूब चर्चा होती थी, राजनैतिक माहौल गर्म था| जनता में बैचनी व्याप्त थी| ऐसी स्थिति में भी हिंदू अखबार(प्रताप एवं मिलाप) अपने आप को मानवतावादी दिखाने के चक्कर में हिंदू जनता से अपील करते थे की उंन्हें अपना वोट पढ़े लिखे एवं ईमानदार व्यक्ति को देना चाहिए| इसके विपरीत मुस्लिम अखबार अपने मूल उद्देश्य के प्रति पूरी तरह स्पष्ट होने के कारण अपने समाचार पत्रों नवाये वक्त और ज़मीदार अखबारों में रोजाना कुछ इस तरह के लेख लिखते थे जैसे “ मुसलमानों, इस्लाम का परचम बुलंद रखने के लिए, मुसलमानों की बेह्बुदी के लिए और पकिस्तान की तामीर के लिए आपको अपना वोट सिर्फ मुस्लिम लीग को ही देना चाहिए”(वह हिंदुओं की तरह नैतिकता का मुखौटा ओढने की बजाय अपने लोगों को स्पष्ट सन्देश देते थे)|
चुनाव के नतीजे भी कुछ ऐसे ही रहे| उत्तर-पश्चिम सीमाप्रांत को छोड कर सभी मुस्लिम सीटों पर मुस्लिम लीग जीती उसे लगभग ९३% मुस्लिम वोट मिले| हिंदू सीटों पर कांग्रेस जीती उसे लगभग ८४% हिन्दुओं के वोट मिले| हिंदू महासभा को इस चुनौती पूर्ण समय में आर. एस. एस. के असहयोग, अदूरदर्शी एवं भ्रम उत्पन्न करने वाली स्थिति के कारण लगभग १६% हिंदू वोट ही मिले| इस चुनाव में आर. एस. एस. का भी अप्रत्यक्ष समर्थन कांग्रेस को मिला| इन्हीं चुनाव के नतीजों के कारण ही पकिस्तान का निर्माण हुआ|
तभी से मेरी यह पक्की धारणा बनी कि क्योंकि मुस्लिम धर्म- गुरु, मुल्ला, मौलवी, मुस्लिम लेखक एवं उनके समाचार पत्र खुलकर इस्लाम एवं अपनी राजनैतिक पार्टी(मुस्लिम लीग) का नाम ले लेकर जनता से उसे समर्थन देने कि बात करते है जबकि हिंदू लेखक, हिंदू धर्माचार्य , हिंदू नेता , हिंदू अखबार , अव्वल तो हिंदुओं को राजनीति से दूर रहने कि सलाह देने के साथ मोक्ष और आत्म कल्याण एवं विश्व कल्याण के पलायन वादी प्रवचन सुनाते है| कुछ नेता हिंदू-हिंदू की बात करते हैं पर वे भी किसी विशेष हिंदू राजनैतिक पार्टी का नाम नहीं लेते और न ही किसी पार्टी से जुड़ने की बात करते हैं| वे हिंदू हितों कि बातें करेंगे, हिन्दुओ पर हो रहे अत्याचार व अन्याय का रोना भी रोएंगे पर हिंदू राजनैतिक पार्टी का नाम लेने से उन्हें परहेज होता है| वे तटस्थ रहने व अपने को असम्बद्ध रखने का दिखावा करने का प्रयास करते है| यही कारण है हिंदुओं के राजनैतिक पिछड़ेपन का और भ्रमित बने रहने का | इसी कारण हिंदुओं में एकता , संगठनात्मक ढ़ाचे का एवं राजनैतिक चेतना का अभाव है | आखिर हम क्यों किसी संवैधानिक हिंदू राजनैतिक दल का सदस्य या कार्यकर्त्ता कहलाने में संकोच या शर्म महसूस करें ? अगर हम किसी हिंदू संवैधानिक राजनैतिक दल से जुडेंगे, उसे शक्तिशाली बनायेंगे तभी तो वह हिंदुओं के साथ हो रही ज्यादतियों से छुटकारा दिलवा सकेगी |
मेरा मानना है कि जब तक देश का कम से कम २०% हिंदू वोट बैंक के रूप में एकजुट नहीं होगा अर्थात उसका वोट एकजुट होकर मात्र हिंदू, हिंदुत्व और हिन्दुस्थान के लिए नहीं पड़ेगा और वह जातिवाद, भाषावाद या प्रान्तीयता के नज़रिए से ऊपर उठ कर हिंदू एवं राष्ट्रीय हित के विचार से अपना वोट नहीं डालेगा तब तक उसकी चिंता कोई नहीं करेगा| उसके हित में कोई कानून नहीं बनेगा और उसका शोषण अथवा त्रिरस्कार होता रहेगा| बार-बार यह कहते रहना कि अधिकांश राजनैतिक पार्टियां वोट बैंक की खातिर मुस्लिम तुष्टिकरण कर रही हैं से कोई हल निकलने वाला नहीं है इसके लिए स्वंय भी एकजुट हो हिंदू वोट बैंक बनना ही इस समस्या का एकमात्र हल हो सकता है|
हिंदू नेतओं एवं धर्माचार्यों को इस रहस्य को समझना होगा तभी हिंदू का राजनैतिक पक्ष बलबती होगा और तब कोई भी सरकार हिन्दुओ की उचित मांगों को ठुकरा नहीं पायेगी| आशा करता हूं हिंदू हितचिन्तक मेरे इस विश्लेषण पूर्ण विवरण पर गंभीरता से विचार करेंगे और हिंदू जनता को सामाजिक, राजनैतिक एव बौद्धिक स्तर से जागरूक करते हुए पूर्ण रूप से राष्ट्रवादी बनाने में सहायक होंगे| जब हिंदू संगठित होगा, उसमें राजनैतिक चेतना आयगी तभी वह सुरक्षित रह पायेगा और कोई भी सरकार उसकी उचित मांगों को ठुकरा नहीं पायेगी |
टी. डी. चाँदना
आगरा
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ तब और अब: भाग-1
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